चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं ,
चाह नहीं प्रेमी माला में विंध प्यारी को ललचाऊँ ;
चाह नहीं नेताओं के सिर चढ़ूँ , भाग्य पर इतराऊँ
भ्रष्टाचारी गद्दारों मक्कारों पर फेंका जाऊं ।
मुझे छोड़ देना वनमाली , जी लूंगा मैं मस्ती से
मेरा जंगल लाख भला तुम हैवानों की बस्ती से ।
पहले इंसानों से मिलकर धन्यभाग होजाता था ,
मानव मूल्यों की सुगंध से जीवन का सुख पाता था ;
मातृभूमि पर शीश चढाने बलिदानी जब चलता था ,
चरण चूमने को उसका तब मेरा ह्रदय मचलता था ।
किन्तु आज बदबू आती है ,उनकी स्वार्थपरस्ती से
मेरा जंगल लाख भला तुम हैवानों की बस्ती से ।
8.9.11
जंगल मेरा लाख भला , तुम हैवानों की बस्ती से
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4 comments:
very nice post , thanks
बहुत सामयिक है आपकी कविता |बधाई
dhaywaad shuklaji !
dhanywaad madhurjee!
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