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8.9.11

जंगल मेरा लाख भला , तुम हैवानों की बस्ती से

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं ,
चाह नहीं प्रेमी माला में विंध प्यारी को ललचाऊँ ;
चाह नहीं नेताओं के सिर चढ़ूँ , भाग्य पर इतराऊँ
भ्रष्टाचारी गद्दारों मक्कारों पर फेंका जाऊं ।
मुझे छोड़ देना वनमाली , जी लूंगा मैं मस्ती से
मेरा जंगल लाख भला तुम हैवानों की बस्ती से ।

पहले इंसानों से मिलकर धन्यभाग होजाता था ,
मानव मूल्यों की सुगंध से जीवन का सुख पाता था ;
मातृभूमि पर शीश चढाने बलिदानी जब चलता था ,
चरण चूमने को उसका तब मेरा ह्रदय मचलता था ।
किन्तु आज बदबू आती है ,उनकी स्वार्थपरस्ती से
मेरा जंगल लाख भला तुम हैवानों की बस्ती से ।

4 comments:

S.N SHUKLA said...

very nice post , thanks

अमरनाथ 'मधुर'امرناتھ'مدھر' said...

बहुत सामयिक है आपकी कविता |बधाई

Dr Om Prakash Pandey said...

dhaywaad shuklaji !

Dr Om Prakash Pandey said...

dhanywaad madhurjee!