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7.9.11

मुफलिसी के तन से तूने, खींची चादर लाज की........

बड़ा ही खतरनाक रहा, बड़ना तेरा विकास,
मुफलिसी के तन से तूने, खींची चादर लाज की........

झोपड़ियां मिटा के कैसे, पांच सितारा हो खड़े,
गरीबी की रोटी पे तूने, रखी नजर बाज की..........

हरे भरे बन काट तूने, कंक्रीट के बनाये जंगल,
है खबर इक बड़ी कीमत, हमे चुकानी है इस काज की.........

दूसरों का पेट भरने, खेत खटता बैल बन जो,
मुद्दत से किसान की बेटी, नही देखी शक्ल प्याज की..........

सारा परिवार साथ बैठ, देखता सी ग्रेड फ़िल्में,
ये कौन सी है संस्क्रती, ये कैसी बात आज की .............

संध्या वन्दन भूल बैठे, भूल बैठे जोत बाती,
शोर को संगीत समझे, ना बात करें साज की.........

बलशाली के पाँव पकड़ो, तलुवे चाटो नाक रगडो,
भूखे को लात मारो, ना फ़िक्र कोई मोहताज की.........

बेशक पैर तले अपनों की लाश, बड़ना लेकिन है जरूरी, 
तन का हो या मन का सौदा, ना बात करो राज की...........

3 comments:

लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल " said...

सुन्दर प्रस्तुति ...हार्दिक बधाई ...
कोसीर... ग्रामीण मित्र !

S.N SHUKLA said...

ख़ूबसूरत रचना , बहुत सुन्दर प्रस्तुति , बधाई

seema prakash said...

जल्दी ही हमारे ब्लॉग की रचनाओं का एक संकलन प्रकाशित हो रहा है.

आपको सादर आमंत्रण, कि आप अपनी कोई एक रचना जिसे आप प्रकाशन योग्य मानते हों हमें भेजें ताकि लोग हमारे इस प्रकाशन के द्वारा आपकी किसी एक सर्वश्रेष्ट रचना को हमेशा के लिए संजो कर रख सकें और सदैव लाभान्वित हो सकें.
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अपनी टिपण्णी से हमारा मार्गदर्शन कीजिये.

जन सुनवाई jansunwai@in.com