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31.3.21

1232 KMs : लॉकडाउन में असली भारत की यह कहानी

himanshu joshi-
 
स्वतंत्र भारत में सरकार की सबसे बड़ी भूल पर प्रकाश डालता एक वृतचित्र। विनोद कापड़ी ने इस वृतचित्र में अपने पत्रकारिता और फिल्मी करियर का पूरा अनुभव झोंक दिया है।



Can't take this shit anymore, मिस टनकपुर हाज़िर हो और पीहू डायरेक्ट करने के बाद देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान 12 अप्रैल 2020 को कुछ प्रवासियों द्वारा ट्विटर पर पोस्ट किए गए एक वीडियो से इस वृतचित्र को बनाने की नींव पड़ी।

हिमालय की पंचाचूली चोटी को देख उसकी जड़ में तीन चार-दिन बिता आए विनोद अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति की वज़ह से इन सात प्रवासियों के पीछे अपने एक सहयोगी के साथ उसकी कार पर चल पड़े।

वृतचित्र की शुरुआत अंधेरी रात में साइकिल से घर लौट रहे मज़दूरों के साथ होती है जो कहते हैं मरना है तो रास्ते में मरना है, बच गए तो घर जाएंगे। दिल्ली से सहरसा तक की दूरी 1232 किमी चल रहे इन सात प्रवासियों को गूगल मैप भटकाता भी है।

इस सफ़र में बहुत से लोगों ने इन प्रवासियों की निःस्वार्थ भाव से सेवा की जिनमें उन्हें लिफ्ट देने वाले ट्रक चालक, ढाबा मालिक और पुलिसकर्मी शामिल थे। अपने परिवार से वीडियो कॉल पर बात और बिहार बॉर्डर पर पहुंच जश्न मनाने का दृश्य लाजवाब हैं।

उसके बाद सातवें दिन गृहराज्य पहुंच शासन के पचड़े में फंसने वाले दृश्य हमारे प्रशासनिक ढांचे की पोल खोलते हैं। खुद विनोद भी सिस्टम से परेशान होते दिखते हैं। उन्होंने इस वृतचित्र को सीमित संसाधनों रहते हुए न सिर्फ बनाया है बल्कि जिया भी है।

अंत में प्रवासियों का अपने परिवार को देखने, मिलने का दृश्य भावुक कर देता है।

वृतचित्र के अभिनेता तीसरे स्तर के वह नागरिक हैं जिन्हें हमने कभी भारतीय माना ही नहीं जबकि उनसे ही असली भारत है।

बैकग्राउंड में बजता संगीत प्रवासियों के दर्द को उधेड़ कर सामने ले आता है। गुलज़ार, विशाल भारद्वाज, सुखविंदर और रेखा भारद्वाज की टीम ने यह सम्भव किया है।

1232 KMs देखने के बाद मुझे खुद से ग्लानि महसूस हो रही है कि लॉकडाउन में मैंने खुद किसी प्रवासी की इतनी मदद नहीं की और बिना उनकी वास्तविक दशा समझे यह सम्भव भी नहीं था। वृतचित्र देखने के बाद पुनः ऐसी स्थिति आने पर बहुत से दर्शक प्रवासियों की मदद के लिए आगे आएंगे।

यह वृतचित्र उन प्रवासियों के लिए एक श्रद्धांजलि है जो लॉकडाउन के बाद भूखे पेट की वज़ह से अपने घर के लिए तो निकले पर उनका वह सफ़र आखिरी सफ़र बन गया। कुछ रेलवे पटरियों पर हमेशा के लिए सो गए तो कोई माँ मरने से पहले अपने बच्चे को खिलाने के लिए अपना पल्लू छोड़ गई।

चुनावी मौसम में रंगे देश में शायद ही कभी इन श्रमिकों की मौत के लिए किसी को जिम्मेदार ठहराया जाएगा।
 
डेढ़ घण्टे की यह वृतचित्र भारत को समझने का नया नज़रिया दे सकता है। सोशल मीडिया पर सरकारी नीतियों पर बहस करने वाले हर भारतीय को यह वृतचित्र देखना चाहिए।

हिमांशु जोशी, उत्तराखंड।
ईमेल- Himanshu28may@gmail.com


1 comment:

Cooking Katie said...

Hello mate nice bblog