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31.3.21

राजनीतिक भ्रष्टाचार और पुलिस का दुरुपयोग


 - शैलेन्द्र चौहान
 

मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह ने शनिवार 20 तारीख को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के नाम लिखे अपने एक पत्र में दावा किया कि महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख चाहते हैं कि पुलिस अधिकारी हर महीने बार और होटलों से कम से कम 100 करोड़ रुपए की वसूली करें। उन्होंने यह भी कहा कि वाझे को देशमुख का संरक्षण मिला हुआ था। भारत में सत्ताधीशों और सरकारी तंत्र द्वारा इस तरह की उगाही कोई अपवाद नहीं है बल्कि आम है। भारतीय राजनीति में धन उगाही एक प्रचलित प्रवृत्ति है और पुलिस इसका सुगम माध्यम है| बाकी आर टी ओ, इनकम टैक्स, सेल टैक्स, रेवेन्यू आदि सैकड़ों चैनल हैं जिनके माध्यम से धन उगाही होती है| यह कोई नई या अनोखी बात नहीं है। यह हर राज्य की परंपरा है। कोई इससे बचा नहीं है। हर राज्य की परंपरा है| कोई इससे बचा नहीं है।


आम तौर पर सरकार, सत्ता और संसाधनों में निजी फ़ायदे के लिए किये जाने वाले बेजा इस्तेमाल को भ्रष्टाचार की संज्ञा दी जाती है। एक दूसरी और अधिक व्यापक परिभाषा यह है कि निजी या सार्वजनिक जीवन के किसी भी स्थापित और स्वीकार्य मानक का चोरी-छिपे उल्लंघन भ्रष्टाचार है। विभिन्न मानकों और देशकाल के हिसाब से भी इसमें तब्दीलियाँ होती रहती हैं। संस्कृतियों के बीच अंतर ने भी भ्रष्टाचार के प्रश्न को पेचीदा बनाया है। उन्नीसवीं सदी के दौरान भारत पर औपनिवेशिक शासन थोपने वाले अंग्रेज़ अपनी विक्टोरियाई नैतिकता के आईने में भारतीय यौन-व्यवहार को दुराचरण के रूप में देखते थे। जबकि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध का भारत किसी भी यूरोपवासी की निगाह में यौनिक-शुद्धतावाद का शिकार माना जा सकता है।

भ्रष्टाचार का मुद्दा एक ऐसा राजनीतिक प्रश्न है जिसके कारण कई बार न केवल सरकारें बदल जाती हैं। बल्कि यह बहुत बड़े-बड़े ऐतिहासिक परिवर्तनों का वाहक भी रहा है। रोमन कैथलिक चर्च द्वारा अनुग्रह के बदले शुल्क लेने की प्रथा को मार्टिन लूथर किंग द्वारा भ्रष्टाचार की संज्ञा दी गयी थी। इसके ख़िलाफ़ किये गये धार्मिक संघर्ष से ईसाई धर्म- सुधरने लगा। परिणामस्वरूप प्रोटेस्टेंट मत का जन्म हुआ। इस ऐतिहासिक परिवर्तन से सेकुलरवाद के सूत्रीकरण का आधार तैयार हुआ।

समाज-वैज्ञानिक विमर्श में भ्रष्टाचार से संबंधित समझ के बारे में कोई एकता नहीं है। पूँजीवाद विरोधी नज़रिया रखने वाले विद्वानों की मान्यता है कि बाज़ार आधारित व्यवस्थाएँ ‘ग्रीड इज़ गुड’ के उसूल पर चलती हैं, इसलिए उनके तहत भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी होनी लाज़मी है। भ्रष्टाचार की दूसरी समझ राज्य की संस्था द्वारा लोगों की आर्थिक गतिविधियों में हस्तक्षेप की मात्रा और दायरे पर निर्भर करती है। बहुत अधिक टैक्स वसूलने वाले निज़ाम के तहत कर-चोरी को सामाजिक जीवन की एक मजबूरी की तरह लिया जाता है। इससे एक सिद्धांत यह निकलता है कि जितने कम कानून और नियंत्रण  होंगे, भ्रष्टाचार की ज़रूरत उतनी ही कम होगी। इस दृष्टिकोण के पक्ष पूर्व सोवियत संघ और चीन समते समाजवादी देशों का उदाहरण दिया जाता है जहाँ राज्य की संस्था के सर्वव्यापी होने के बावजूद बहुत बड़ी मात्रा में भ्रष्टाचार की मौजूदगी रहती है।  ‘ज़्यादा नियंत्रण- ज़्यादा भ्रष्टाचार’ के समीकरण को सही ठहराने के लिए तीस के दशक के अमेरिका में की गयी शराब-बंदी का उदाहरण भी दिया जाता है जिसके कारण संगठित और आर्थिक भ्रष्टाचार में अभूतपूर्व उछाल आ गया था।

साठ और सत्तर के दशक में कुछ विद्वानों ने अविकिसित देशों के आर्थिक विकास के लिए एक सीमा तक भ्रष्टाचार और काले धन की मौजूदगी को उचित करार दिया था। अर्नोल्ड जे. हीदनहाइमर जैसे सिद्धांतकारों का कहना था कि परम्पराबद्ध और सामाजिक रूप से स्थिर समाजों को भ्रष्टाचार की समस्या का कम ही सामना करना पड़ता है। लेकिन तेज़ रक्रतार से होने वाले उद्योगीकरण और आबादी की आवाज़ाही के कारण समाज स्थापित मानकों और मूल्यों को छोड़ते चले जाते हैं। परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की परिघटना पैदा होती है। सत्तर के दशक में हीदनहाइमर की यह सिद्धांत ख़ासा प्रचलित था। भ्रष्टाचार विरोधी नीतियों और कार्यक्रमों की वकालत करने के बजाय हीदनहाइमर ने निष्कर्ष निकाला था कि जैसे-जैसे समाज में समृद्धि बढ़ती जाएगी, मध्यवर्ग की प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी और शहरी सभ्यता व जीवन-शैली का विकास होगा, इस समस्या पर अपने आप काबू होता चला जाएगा। लेकिन सत्तर के दशक में ही युरोप और अमेरिका में बड़े-बड़े राजनीतिक और आर्थिक घोटालों का पर्दाफ़ाश  हुआ। इनमें अमेरिका का वाटरगेट स्केंडल और ब्रिटेन का पौलसन एफ़ेयर प्रमुख था। इन घोटालों ने मध्यवर्गीय नागरिक गुणों के विकास में यकीन रखने वाले हीदनहाइमर के इस सिद्धांत के अतिआशावाद की हवा निकाल दी।

साठ के दशक के दौरान ही कुछ अन्य विद्वानों ने भी हीदनहाइमर की तर्ज़ पर तर्क दिया था कि भ्रष्टाचार की समस्या की नैतिक व्याख्याएँ करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इनमें सेमुअल हंटिंग्टन प्रमुख थे। इन समाज-वैज्ञानिकों की मान्यता थी कि भ्रष्टाचार हर परिस्थिति में नुकसानदेह नहीं होता। विकासशील देशों में वह मशीन में तेल की भूमिका निभाता है और लोगों के हाथ में ख़र्च करने लायक पैसा आने से उपभोक्ता क्रांति को गति मिलती है। लेकिन अफ़्रीका में भ्रष्टाचार के ऊपर विश्व बैंक द्वारा 1969 में जारी रपट ने इस धारणा को धक्का पहुँचाया। इस रपट के बाद भ्रष्टाचार को एक अनिवार्य बुराई और आर्थिक विकास में बाधक के तौर पर देखा जाने लगा। विश्व बैंक भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहिम चलाने में जुट गया। इस विमर्श का एक परिणाम यह भी निकला कि समाज-वैज्ञानिक अपेक्षाकृत कम विकसित देशों में भ्रष्टाचार की समस्या के प्रति ज़्यादा दिलचस्पी दिखाने लगे। विकसित देशों में भ्रष्टाचार की समस्या काफ़ी-कुछ नज़रअंदाज़ की जाने लगी।

यह दृष्टिकोण भूमण्डलीकरण के दौर में और प्रबल हुआ। उधार देने वाली अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं, उन पर हावी विकसित देशों और बड़े-बड़े कॉरपोरेशनों ने यह गारंटी करने की कोशिश की कि उनके द्वारा दी जाने वाली मदद का सही-सही इस्तेमाल हो। इसका परिणाम 1993 में ट्रांसपेरेंसी इंटरनैशनल की स्थापना में निकला जिसमें विश्व बैंक के कई पूर्व अधिकारी सक्रिय थे। इसके बाद सर्वेक्षण और आँकड़ों के ज़रिये भ्रष्टाचार का तुलनात्मक अध्ययन शुरू हो गया। लेकिन इन प्रयासों के परिणाम किसी भी तरह से संतोषजनक नहीं माने जा सकते। 2007 में डेनियल ट्रीज़मैन ने ‘व्हाट हैव वी लर्न्ड अबाउट द काज़िज़ ऑफ़ करप्शन फ़्रॉम टेन इयर्स ऑफ़ क्रॉस नैशनल इम्पिरिकल रिसर्च?’ लिख कर नतीजा निकला है कि परिपक्व उदारतावादी लोकतंत्र और बाज़ारोन्मुख समाज अपेक्षाकृत कम भ्रष्ट हैं। उनके उलट तेल निर्यात करने वाले देश, अधिक नियंत्रणकारी कानून बनाने वाले और मुद्रास्फीति को काबू में न करने वाले देश कहीं अधिक भ्रष्ट हैं।


ज़ाहिर है कि ये निष्कर्ष किसी भी कोण से नये नहीं हैं। हाल ही में जिन देशों में आर्थिक घोटालों का पर्दाफ़ाश हुआ है उनमें छोटे-बड़े और विकसित-अविकसित यानी हर तरह के देश (चीन, जापान, स्पेन, मैक्सिको, भारत, चीन, ब्रिटेन, ब्राज़ील, सूरीनाम, दक्षिण  कोरिया, वेनेज़ुएला, पाकिस्तान, एंटीगा, बरमूडा, क्रोएशिया, इक्वेडोर, चेक गणराज्य, वग़ैरह)  हैं। भ्रष्टाचार को सुविधाजनक और हानिकारक मानने के इन परस्पर विरोधी नज़रियों से परे हट कर अगर देखा जाए तो अभी तक आर्थिक वृद्धि के साथ उसके किसी सीधे संबंध का सूत्रीकरण नहीं हो पाया है।

2020 के भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक (सीपीआई) में 180 देशों में भारत का स्थान छह पायदान फिसलकर 86वें नंबर पर आ गया। वर्ष 2020 के लिए ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल (टीआई)’ का भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक बृहस्पतिवार को जारी किया गया। सूचकांक में 180 देशों में सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार के स्तर का रैंक जारी किया जाता है, जिसमें शून्य से लेकर 100 तक के पैमाने का उपयोग किया जाता है, जहां शून्य स्कोर वाले देश को सबसे अधिक भ्रष्ट माना जाता है और 100 स्कोर वाले को सबसे साफ माना जाता है। भारत 40 अंकों के साथ 180 देशों में 86वें स्थान पर है। सूचकांक में कहा गया है कि 2019 में भारत 180 देशों में 80वें स्थान पर था। इस वर्ष भारत का सीपीआई स्कोर पिछले वर्ष के स्कोर के बराबर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत अब भी भ्रष्टाचार सूचकांक में काफी पीछे है। 

हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि सीपीआई किसी भी देश में भ्रष्टाचार के वास्तविक स्तर को नहीं दर्शाता है। यह समग्र स्कोर किसी देश की भ्रष्टाचार की स्थिति का आकलन करता है। इस साल, न्यूजीलैंड और डेनमार्क 88 के स्कोर के साथ पहले स्थान पर रहे। सोमालिया और दक्षिण सूडान 12 स्कोर के साथ सबसे नीचे 179वें स्थान पर रहे। इस इंडेक्स में कुल 88 अंकों के साथ न्यूज़ीलैंड और डेनमार्क को पहले स्थान पर रखा गया है जोकि दुनिया के सबसे साफ सुथरी छवि वाले देश हैं। इनके बाद फिनलैंड, सिंगापुर, स्वीडन और स्विट्जरलैंड सम्मिलित रूप से तीसरे स्थान पर हैं, इन सभी को 85 अंक मिले हैं। जबकि इसके विपरीत कुल 12 अंकों के साथ अफ्रीकी देश दक्षिण सूडान और सोमालिया को सबसे भ्रष्ट देश घोषित किया गया है। वहीं 67 अंकों के साथ अमेरिका 25वें और 42 अंकों के साथ चीन 78वें पायदान पर है।

करप्शन पर नजर रखने वाली संस्था ‘ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल’ ने एशिया में भ्रष्टाचार को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक एशिया में सबसे अधिक भ्रष्टाचार दर भारत में है। इसके अलावा एशिया में सबसे अधिक भारतीयों ने ही अपने व्यक्तिगत संबंधों का इस्तेमाल कर सरकारी कार्यालयों में अपना काम करवाया है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में भ्रष्टाचार दर 39 फीसदी है जो एशिया में सबसे अधिक है। इसके अलावा एशिया में सबसे अधिक 46 फीसदी भारतीयों ने अपने व्यक्तिगत संबंधों का उपयोग कर सरकार काम करवाए।

भारत में 89 फीसदी लोगों का मानना है कि सरकारी भ्रष्टाचार बहुत बड़ी समस्या है। 18 फीसदी लोगों ने वोट के बदले कुछ रिश्वत ली और 11 फीसदी लोगों ने या तो एक्सटॉर्शन का सामना किया है। भारत, मलेशिया, थाइलैंड, श्रीलंका और इंडोनेशिया जैसे कुछ देशों में सेक्सुअल एक्सटॉर्शन रेट बहुत अधिक हैं। रिपोर्ट के मुताबिक इन देशों में सेक्सटॉर्शन को रोकने के लिए अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। सेक्सटॉर्शन पैसे वसूली या सेक्सुअल फेवर का एक ऐसा तरीका है जिसमें मार्फ्ड इमेज (फोटोशॉप की गई फोटोज) जैसे तरीकों से किसी की सेक्सुअल एक्टिविटी को सार्वजनिक करने की धमकी दी जाती है।

पूरे एशिया की बात करें तो इस महाद्वीप में 50 फीसदी लोगों ने माना कि उन्होंने घूस दी है और 32 फीसदी लोगों ने यह माना है कि उन्होंने व्यक्तिगत संबंधों के जरिए सरकारी काम करवाए। यह सर्वे 17 जून से 17 जुलाई के बीच 2 हजार भारतीयों के बीच कराया गया। भारत में भ्रष्टाचार बहुत बड़ी समस्या है लेकिन उससे भी बड़ी समस्या इसकी शिकायत करना है। सर्वे में 63 फीसदी भारतीयों का मानना है कि अगर वे भ्रष्टाचार की शिकायत करते हैं तो उन्हें कई समस्याएं झेलनी पड़ सकती हैं। भारत में भ्रष्टाचार की समस्या बहुत बड़ी है। जिसे राजनीतिक इच्‍छाशक्‍ति के बिना खत्म नहीं किया जा सकता। जिसकी दूर दूर तक कोई संभावना नजर नहीं आती।

shailendra chauhan-
संपर्क : 34/242, सेक्‍टर-3, प्रतापनगर, जयपुर -302033
मो.7838897877

 

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