Etisha Arun-
अभी कुछ ही दिन तो हुए अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का जश्न मनाये हुए, आधी आबादी की "महिमा" का बखान किए हुए। लगभग एक सदी (1908) से अधिक हो गया काम के घंटे, जीने लायक मजूरी और अन्य सुविधाओं के लिए शिकागो की सड़कों पर उतरी थीं महिलाएं अपनी बेहतरी के लिए। उन्हीं की याद में दशकों से हम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हैं चलिए इसी परिप्रेक्ष्य में हम महिलाओं की स्थिति का आकलन करते हैं। यानि 113 साल पहले महिलाओं ने बेहतर जीवन ( वेतन और अन्य मुद्दे फिर कभी) को लेकर सड़कों पर उतरीं थीं वह दूर हुई। यानि पहले भी महिलाएँ जिन समस्याओं से जूझ रही थीं कमोबेश आज भी जूझ रही हैं। पहले भी समाज में सम्मान बराबर का नहीं था आज भी है।
इसके लिए इतिहास और आंकड़े में न भी जाएं तो आज के हालात अंदाज बयां कर देते हैं। मसलन पहले भी नसीहत दी जाती थी आज भी दी है। बस उसका स्वरूप बदला है। पहले माँ-बाप बेटियों को "पराया धन" थे और ससुराल वालों के लिए बच्चा पैदा करने की मशीन या वंश विस्तारक। शुरू से ही उसके दिमाग में यह बात बैठा दी जाती है कि, उसे दूसरे के घर जाना है यानि यह घर जहां वह पैदा हुई है उसका अपना नहीं है। पुरुष प्रधान समाज के लिए नारी नागिन है, नर्क का द्वार है। माँ-बाप पराये धन को कन्यादान कर पति के हवाले कर देते थे और आज भी कर देते हैं।
एक खूंटे से दूसरे खूंटे में वह पहले भी बांधी जाती थी और आज भी बांधी जाती है। अब चूंकि लड़की पराया धन है इसलिए पढ़ाने की भी जरूरत नहीं,अक्षर ज्ञान ही काफी था। इतिहास के आईने में देंखे तो आदिम युग में और धर्म के चश्मे से देखें तो वैदिक काल में। सत्ता मातृ सत्तात्मक थी। वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति समाज में काफी ऊंची थी और वे धार्मिक कर्मकांडों में ही भाग नहीं लेतीं थीं बल्कि उन्हें ॠषियों और पुरोहितों का दर्जा भी हासिल था। इसी अधिकार से वे धार्मिक कर्मकांड करातीं थीं।
शारीरिक संरचना के चलते वे पुरुषों के आगे नहीं टिक पायीं। सामंतवादी व्यवस्था में एकतरफ वे राजाओं, नवाबों के रनिवास-हरम की शोभा बनतीं रहीं तो... तो दूसरी तरफ जमींदारों के बिस्तर की शोभा। थोपी गयी इसी सोच ने पति की मृत्यु के साथ उसकी चिता पर मरने को मजबूर किया। सामंतवादी व्यवस्था में शादी के बाद पति के यहां पहुंचने से पहले लठैत जमींदार के यहां पहुंचा देते थे। तो पूंजीवाद ने उसे बिकाऊ " माल" बना दिया। आज वह विज्ञापनों में बिकने को मजबूर है। पहले महिला बच्चा पैदा करने की मशीन थी और आज पैसा पैदा करने की। सामंतवादी व्यवस्था में पुरुष बच्चा न होने पर शादी दर शादी करता था पूंजीवादी व्यवस्था ने महिला को बाजार बना दिया। पैदा होने से लेकर मरने तक कभी उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व रहा ही नहीं।
समय-समय पर वह पिता, पति और पोतों के अधीन रही। इस समस्या की देन हमारी सोच थी, है और रहेगी। और इसी तरह की सोच तीरथ सिंह रावत को हवाई जहाज में सफर कर रही महिला सह यात्री के पैरों पर ले गई जहां उन्हें उसका गमबूट दिखा, फिर उनकी सोच उन्हें और ऊपर ले गई तो उन्हें उसकी "फटी" जींस से झांकती टांग दिखी... फिर उनकी सोच उन्हें और कहाँ ले गई हालांकि इसका उल्लेख उन्होंने उस सार्वजनिक कार्यक्रम में नहीं किया जिसमें वो " परत-दर-परत " निगाहों की प्रक्रिया का उल्लेख कर रहे थे। इस दौरान वो अपनी राजनीतिक/वैचारिक सोच के निशाने पर रहे गैर राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय प्रचारित किये जाने वाले जेएनयू का नाम लेना नहीं भूले। रही बात फटी जींस की तो फटी जींस नग्नता का प्रतीक नहीं। कपड़े के अंदर तो सभी नंगे हैं।
नग्नता सही तस्वीर नहीं दर्शाती। साधुओं का एक समूह भी तो कपड़े नहीं पहनता और जैन धर्मगुरु भी। अगर नागा साधुओं की एक धारा है तो गरीबों की नग्नता उनकी मजबूरी। नग्नता बुराई नहीं, बुराई हमारी दृष्टि में भी नहीं बुराई है तो हमारे नजरिये में। स्त्रियों की नग्नता पुरुषों को ही क्यों कामुक बनाती है। अगर नग्नता कामुकता का कारण है तो पूरे या कथित रूप से शालीन कपड़े पहनने वाली बच्चियाँ, अधेड़ व बूढ़ी महिलाएँ कामुकता का शिकार क्यों होतीं हैं ? जरूरत है तो सोच बदलने की जो आसानी से बदलने वाली है भी नहीं पर बदलेगी भी नहीं ऐसा भी नहीं।
इतिशा अरुण
देहरादून
arunetisha@gmail.com
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