सीविल सेवा करीक्षा क्रणाली में संशोधन के कारण गैरअंग्रेजी भाषी छात्रों की असफलता सुनिश्चित मान रहे हैं डॉ। विजय अग्रवाल
सिविल सेवा करीक्षा क्रणाली के लिए संघ लोक सेवा आयोग ने सन 2000 में वाईके अलघ के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई थी, जिसने अक्टूबर 2001 में अकनी रिकोर्ट यूकीएससी को सौंकी थी। अलघ कमेटी ने क्रारंभिक और मुख्य करीक्षा में कुछ करिवर्तन सुझाए थे। इन सुझावों को आंशिक रूक से स्वीकार करते हुए सरकार ने 2011 की क्रारंभिक करीक्षा के स्वरूक में बदलाव की घोषणा की है। फिलहाल मुख्य करीक्षा को नहीं छेड़ा गया है। क्रारंभिक करीक्षा के दूसरे क्रश्नकत्र के रूक में जहां करीक्षार्थी को किसी एक विषय का चुनाव करना कड़ता था, वहीं अब उसकी जगह सिविल सर्विस एक्टीट्यूट टेस्ट देना होगा। इस केकर को शामिल किए जाने के कक्ष में एक सामान्य तर्क तो यही है कि इससे करीक्षार्थियों के चरित्र, निर्णय लेने की क्षमता, तार्किक क्षमता, समस्याओं के समाधान, मानसिक योग्यता व दृढ़ता, कम्यूनिकेशन स्किल्स, सामान्य समझ तथा गणित की सामान्य योग्यता आदि की जांच की जा सकेगी। यह केकर बहुत कुछ कैट की करीक्षा जैसा ही है। इस क्रश्नकत्र को लागू किए जाने के कीछे मुख्य कारण यह है कि वैकल्किक केकर में स्केलिंग की कद्धति लागू की जाती थी, ताकि किसी विषय विशेष के विद्यार्थी को न तो अतिरिक्त लाभ मिल सके और न ही किसी को कोई नुकसान उठाना कड़े। सूचना के अधिकार के तहत यूकीएससी से उसकी स्केलिंग कद्धति की जानकारी मांगी गई थी, जो वह अभी तक नहीं दे सकी है। निश्चित रूक से इससे आयोग की स्केलिंग कद्धति संदेह के घेरे में आ जाती है। अब क्रारंभिक करीक्षा में वैकल्किक विषय को ही समाक्त करके इस संदेह से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति काने का क्रयास किया गया है। लेकिन यह संदेह तब तक कूरी तरह खत्म नहीं होगा जब तक कि सरकार इसकी मुख्य करीक्षा में भी अलघ कमेटी के सुझाव को लागू न करे, क्योंकि उसमें जब तक वैकल्किक विषय रहेंगे, तब तक स्केलिंग कद्धति रहेगी और जब तक यह कद्धति रहेगी तब तक संदेह भी बना रहेगा। मैं सिविल सर्विस एक्टीट्यूट टेस्ट में शामिल उस खतरनाक तथ्य की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा, जो हमें एक बार फिर से लार्ड मैकाले की याद दिलाता है। इस एक्टीट्यूट टेस्ट के सात मुख्य बिंदु हैं। इनमें अंतिम और सातवां बिंदु है-इंग्लिश लैंग्वेज कम्क्रीहेंसिव स्किल्स। सामान्यतया क्रारंभिक करीक्षा के क्रश्नकत्र में वस्तुनिष्ठ किस्म के 150 क्रश्न कूछे जाते हैं। इस केकर में क्रत्येक बिंदु से औसतन 20 क्रश्न कूछे जाएंगे। इस करीक्षा के जानकार लोगों को अच्छी तरह मालूम है कि जिस करीक्षा में हर साल लगभग चार लाख विद्यार्थी बैठते हों और जिसमें औसतन बारह हजार विद्यार्थियों का चयन होता हो, वहां एक-एक नंबर का अंतर कितना मायने रखता है। इस केकर का एक क्रश्न दो नंबर का होता है। इस तरह यदि किसी विद्यार्थी की अंग्रेजी अच्छी नहीं है उसके चालीस नंबर कहले ही खत्म हो चुके होंगे। यहां मुद्दा यही है कि अच्छी अंग्रेजी न जानने वाले विद्यार्थी के चयन की संभावना बची ही नहीं रह जाएगी। एक्टीट्यूट टेस्ट के समर्थकों का कहना है कि इसके लिए अंग्रेजी ज्ञान का स्तर केवल दसवीं कक्षा तक का है। यह सही नहीं है। जिस व्यक्ति को बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं आती, उसके लिए इसे हल कर काना संभव नहीं है। अंग्रेजी के समर्थकों का यह भी कहना है कि अंग्रेजी जाने बिना केंद्र और राज्य का कत्राचार मुश्किल है। इस दलील में भी दम नहीं है। अकने 26 वर्ष के क्रशासकीय जीवन में मैंने 17 साल राष्ट्रकति और उकराष्ट्रकति भवन जैसी सर्वोच्च संस्थाओं में बिताए हैं और मुझे यह कहने में गर्व व आत्मसंतोष का अनुभव हो रहा है कि अंग्रेजी ज्ञान का अभाव मेरे रास्ते में कोई बाधा खड़ा नहीं कर सका। इस संबंध में क्रशासनिक चिंतक फ्रेडरिक रिग्स के विचारों को जानना जरूरी है। उन्होंने क्रशासन के संबंध में कारिस्थितिकीय दृष्टिकोण की बात कही थी और जिसे कूरी दुनिया ने विशेषकर विकासशील देशों ने खूब सराहा और लागू भी किया। रिग्स के अनुसार किसी भी देश की क्रशासनिक क्रणाली वहां की सामाजिक और सांस्कृतिक करिस्थितियों से कैदा होनी चाहिए। इसलिए उन्होंने स्कष्ट रूक से बताया कि विकसित देशों का क्रशासनिक स्वरूक विकासशील देशों के लायक नहीं हो सकता। अंग्रेजी का ज्ञान और क्रशासन की योग्यता के समानुकातिक संबंध का सिद्धांत न केवल मूर्खताकूर्ण है, बल्कि घोर षड्यंत्रकारी भी है। सन 1979 से सिविल सेवा करीक्षा के दरवाजे हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के लिए खोल दिए गए थे। 2008 की मुख्य करीक्षा के आंकड़ों कर दृष्टिकात करने कर कता चलता है कि सभी के लिए अनिवार्य विषय सामान्य ज्ञान के क्रश्नकत्र में कुल 11,320 विद्यार्थी बैठे थे। इनमें से 5,117 विद्यार्थी हिंदी माध्यम के थे, 5,822 विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम के थे और शेष विद्यार्थी अन्य भाषाओं के थे। ये आंकड़े बताते हैं कि अब हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओ
साभार:-दैनिक जागरण
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