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31.3.21

सहारा में अन्याय के खिलाफ ऐसा बिगुल बजा कि आंदोलन ने क्रांति कर रूप ले लिया!

CHARAN SINGH RAJPUT-
    
 
यूं ही नहीं हुई सहारा में क्रांति! वैसे तो निजी कंपनियों में गुलामी पूरी तरह से घर कर गई है पर सहारा ग्रुप में तो गुलामी का आलम यह रहा है कि सहाराकर्मी अभिवादन के नाम पर नमस्ते, प्रणाम या गुड़ मॉर्निंग नहीं बोलते बल्कि पहले गुड सहारा और अब सहारा प्रणाम बोलते रहे हैं। चैयरमैन सुब्रत राय को सहाराश्री बोला जाता है। हालांकि अब सहारा में मनमानी, तानाशाही और अन्याय के खिलाफ लगातार आवाज उठ रही है। इसका बड़ा कारण 2016 में सहारा में बगावत है।  सहारा में उठी बगावत की चिंगारी अब पूरे देश में आग का रूप ले चुकी है। यह वही संस्था है जिसमें डंडे के जोर पर कर्मचारियों से जहां चाहे हस्ताक्षर करा लिए जाते रहे हैं। चाटुकारिता की सभी हदें पार की जाती रही हैं। हक की आवाज को दमन के बल पर दबा दिया जाता रहा है। चेयरमैन (सुब्रत राय) को भगवान की तरह पूजा जाता रहा है। राजनेताओं, नौकरशाह, बाहुबलियों, बालीवुड और खेल हस्तियों तक पकड़ दिखाकर कर्मचारियों और निवेशकों को डराया जाता रहा है। मालिकानों और अधिकारियों ने तो जमकर अय्याशी की पर कर्मचारियों का बस शोषण और दमन ही किया गया। इस संस्था में अन्याय के खिलाफ ऐसा बिगुल बजा कि आंदोलन ने क्रांति कर रूप ले लिया। जिस मीडिया के बल पर गलत को सही कराते थे उसी मीडिया हाउस में टैंट गाड़ दिया गया। तिहाड़ जेल में बंद चेयरमैन को जाकर खरी-खोटी सुनाई गई। ललकार दिया गया। सहारा के दमन, काले कारनामों और अन्याय के खिलाफ छिड़े इस आंदोलन को सही शब्दों में उतार दिया जाए तो बालीवुड के लिए एक बढ़िया क्रांतिकारी फिल्म बन जाए।


संस्था में 22 साल तक जुड़ा होने के साथ ही आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने की वजह से मैंने संस्था और आंदोलन दोनों को करीब से देखा है। जैसा कि मेरा स्वभाव है कि मैं जो भी बात करता हूं खुलेआम करता हूं। मैंने इस आंदोलन को 'सहारा क्रांतिÓ काम नाम दिया था। सहारा में यदि लोकतंत्र की बात की जाए तो सहारा मीडिया में तो आतंक का माहौल बना दिया गया था। यदि अपने ही बीच के किसी साथी का स्थानांतरण कहीं किसी दूसरी यूनिट में हो जाए तो दूसरे साथी उससे बात करना बंद कर देते थे। किसी अधिकारी से गर्मागर्मी हो जाए तो खुशफुसाहट होने लगती थी कि अब तो उसकी नौकरी गई। यह मैंने भलीभांति देखा, महसूस किया है और झेला भी है।

दरअसल मैं पत्रकारिता, समाजसेवा के साथ राजनीति में भी दिलचस्पी लेता रहता हूं। लोहिया जी का अनुयाई होने की वजह से 1998 में समाजजवादी पार्टी से जुड़ गया था। 2005 तक आते-आते समाजवादी पार्टी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मेरा कद काफी बढ़ गया था। उस समय मैं दिन में पार्टी का काम करता था तथा रात में डेस्क पर अपनी ड्यटी करता था। कठिन परिश्रम और विचारधारा के दम पर मैंने बहुत कम समय में बड़ी लोकप्रियता हासिल कर ली थी। मेरी बढ़ती लोकप्रियता से ईष्या करते हुए प्रबंधन ने मेरा स्थानांतरण पटना स्थित यूनिट में कर दिया। यह राजनीतिक रूप से मेरे खिलाफ बड़ा षड्यंत्र था। उस समय नई यूनिट के नाम पर 58 साथियों का स्थानांतरण हुआ था। अधिकतर साथी पूर्व समूह संपादक गोविंद दीक्षित के करीबी होने की वजह से स्थानांतरित किए गए थे। मेरा दोष बस इतना था कि मैं किसी राजनीतिक दल से जुड़कर अपना राजनीतिक मुकाम हासिल करने में लग गया था।

पटना में मैंने 4.5 साल प्रबंधन से संघर्ष किया। उस समय नोएडा परिसर में यह हाल था कि अधिकतर कर्मचारी मुझसे बात करने बचते थे। उनका डर वाजिब था, क्योंकि तत्कालन समूह संपादक रणविजय सिंह बात-बात में कर्मचारियों को पटना स्थित यूनिट में स्थानांतरण करने की धमकी देता था। पटना यूनिट उस समय सहारा मीडियाकर्मियों के लिए काला पानी की सजा थी। मुझसे तो रणविजय सिंह दुश्मनी जैसा व्यवहार करता था। अक्सर अधिकारियों से कहता था कि सबको नोएडा वापस बुला लेगा पर मुझे नहीं। यही वजह थी कि रणविजय सिंह के सबसे बड़े चमचे दधिबल यादव ने मेरे बारे में कहा था कि सब लोग पटना से आ जाएंगे पर चरण सिंह नहीं आ पाएगा। तमाम विरोध के बावजूद मैं नोएडा परिसर में वापस आया। रणविजय सिंह और दधिबल यादव के सीने पर चढ़कर नौकरी भी की। हां मेरी वापसी में आज के समूह संपादक विजय राय का बहुत बड़ा हाथ था। उनका यही अहसान था कि दूसरे आंदोलन के बाद जब उपेंद्र राय ने मुकुल राजवंशी और उत्पल कौशिक को नौकरी से निकाला तो मैं अपने स्वभाव के अनुकूल खुलकर इसका विरोध न कर सका। हालांकि बाद में मैंने इन सब बातों का अहसास विजय राय को जरूर कराया।

जहां तक आंदोलन की बात है तो मैंने पटना में ही संकल्प ले लिया था कि इस संस्था में कर्मचारियों को अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए जागरूक करके रहूंगा। हालांकि यह काम बहुत मुश्किल था। इस काम में मैं पटना से ही लग गया था। इसके लिए मुझे चार साल लगे। बड़े प्रयास से गीला कोयला हो चुके कर्मचारियों को सुलगाया गया। जब कई महीनों तक कर्मचारियों को वेतन न मिला तो नोएडा परिसर में एक आंदोलन का माहौल बन गया। इसकी शुरुआत टीवी वालों ने की थी पर प्रिंट मीडिया ने इसे ऐसी गति दी कि सहारा की चूलें हिल गईं। भले ही बाद में ब्रजपाल सिंह विजय राय के लिए काम करने लगा हो पर सहारा में आंदोलन करने में उसकी महत्पूर्ण भूमिका रही है। मैंने तो बस उसका उत्साहवर्धन किया था। भले ही आज नियमित वेतन मिलने पर कर्मचारी चुप बैठे हों पर सहारा में यह क्रांति सबके सहयोग से हुई है। क्रांति की यह चिंगारी तब तक सुलगती रहेगी, जब तक सहारा का नाम है।

सहारा में आंदोलन होने का बड़ा कारण मालिकान और प्रबंधन का गैरजिम्मेदाराना और तानाशाह रवैया रहा है। यही वजह है कि जहां एक-एक करके संस्था को खड़ा करने वाले बहुत से कर्मचारी या तो बाहर कर दिये हैं या फिर आहत होकर अपनेआप चले गए, वहीं दूसरी ओर एक-एक कर सहारा की संपत्ति बिकती जा रही है। इस आंदोलन की भूमिका को उस दिन बड़ी मजबूती मिली जब 3 मार्च 2014 में संस्था के चेयरमैन सुब्रत राय को निवेशकों का पैसा हड़पने के आरोप में तिहाड़ जेल में बंद कर दिया गया। कभी कारगिल तो कभी भूकंप और कभी सहारा वेल्फेयर के नाम पर अपने ही कर्मचारियों को ठगने वाले संस्था के इस तथाकथित मुखिया ने जेल में जाने पर भी अपने कर्मचारियों को ठगने की योजना बना ली। जेल से ही अपने कर्मचारियों को एक पत्र लिखा कि उसे जेल में छुड़ाने के लिए वे उसकी मदद करें।

अपने चेयरमैन को भगवान समझने वाले कर्मचारियों ने देर न लगाई किसी ने 10,000 रुपए तो किसने इससे भी अधिक रुपए अपने चेयरमैन को जेल से छुड़ाने के नाम पर संस्था को दे दिए। यह वह महीना था जिस महीने दो महीने से कर्मचारियों को वेतन नहीं मिला था। संस्था के दमन की नीति देखिए कि जो कर्मचारी पैसे की व्यवस्था न कर पाएं। उन्हें चेयरमैन का डर दिखाकर उनसे जबर्दस्ती पैसे लिए गए। हां मैं गर्व के साथ कह सकता हूं कि मैंने साफ तौर से पैसे देने से इनकार कर दिया था, क्योंकि मैं जानता था कि यह पैसा अधिकारियों व मालिकानों की अय्याशी पर ही खर्च होगा। मेरे जैसे कुछ कर्मचारी थे, जो किसी भी दबाव में न आए। 2015 आते-आते कर्मचारियों का सात माह का बकाया संस्था पर हो गया। उस समय संस्था में आधे से भी कम वेतन मिल रहा था। टीवी के साथियों ने हिम्मत दिखाई उन्हें समझा दिया गया। पर जब प्रिंट मीडिया के साथियों ने मोर्चा संभाला तो आंदोलन ने बड़ा रूप ले लिया।

दो जून 2015 को संस्था के अन्याय के खिलाफ एक बड़ी आवाज उठी। यह आवाज थी ब्रजपाल सिंह और चरण सिंह राजपूत (मेरी)। विपिन दुबे, सुरजीत सिंह, आजाद शेखर जैसे कई और अन्य कर्मचारी आंदोलन की अगुआई कर रहे थे। प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के कर्मचारियों ने एकजुट का परिचय देते हुए आंदोलन को बड़ा रूप दिया। आंदोलन ने ऐसा जोर पकड़ा कि देहरादून, बनारस, लखनऊ, गोरखपुर, कानपुर और पटना की राष्ट्रीय सहारा की यूनिटों के साथ इलेक्ट्रोनिक मीडिया की कवरेज रोक दी गई।

उस समय मीडिया हेड राजेश कुमार तथा आंदोलन की अगुआई ब्रजपाल सिंह और मैं कर रहा था। मेरी समझ में मीडिया में इससे बड़ा आंदोलन आज तक नहीं हुआ है। कई वाहन पीएससी के राष्ट्रीय सहारा के गेट पर खड़े थे। इसी बीच एक दिन सुबह 8.30 बजे अचानक गौतमबुद्धनगर का पूरा पुलिस प्रशासन नोएडा स्थित राष्ट्रीय सहारा/सहारा समय टीवी के परिसर में बुलाया गया तथा पुलिस प्रशानस और प्रबंधन ने आंदोलनकारियों पर दबाव बनाने की हर संभव कोशिश की पर वे सफल न हो सके।

तत्कालीन समूह संपादक रणविजय सिंह ने तो ठकुराई अंदाज में आंदोलन की अगुआई कर रहे कर्मचारियों को धमकाने की कोशिश की पर वह भी काम न आई। उस दिन रणविजयय सिंह की हेकड़ी भी निकाल दी गई। रणविजय सिंह ही नहीं सीबी सिंह जैसे मक्कार अधिकारी को भी औकात बता दी गई। मामले को बिगड़ता देख राजेश कुमार ने ब्रजपाल सिंह को पटाया और सुब्रत राय से एक भावुक पत्र लिखवाकर उससे ही पढ़वाया। पता नहीं किस दबाव या लालच में ब्रजपाल सिंह ने आनन-फानन में आंदोलन को समाप्त करने की घोषणा कर दी। हालांकि मैंने मामले को संभालने की कोशिश की पर तब तक मामला बिगड़ चुका था। हम लोग मात्र आश्वासन पर अपना काम करने लगे। अपनी आदत से मजबूर सुब्रत राय अपने वादे पर खरा न उतर सका तथा सितम्बर माह में फिर से आंदोलन शुरू हो गया।

मुंबई की यूनियन से नोएडा समेत कई यूनिटों के साथी जुड़े। गीता रावत का उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बना दिया गया। गीता रावत की अगुआई में फिर से आंदोलन शुरू हो गया पर पता नहीं क्या बात हुई कि मुंबई से बात बिगड़ जाने पर नोएडा में एक यूनियन के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई और आंदोलन को गति दी गई। यह आंदोलन भले ही गीता रावत के नाम से चल रहा था पर दिमाग यूनियन के महासचिव शशि राय का चल रहा था। हां कर्मचारी हित में आगे बढ़कर परिसर में चल रहे धरने का संचालन मैंने किया। प्रिंट और टीवी मीडिया के साथी पूरी तरह से लामबंद थे। तिकड़मबाजी में माहिर सुब्रत राय ने अपने सिपहसालार उपेन्द्र राय को आंदोलन को तोड़ने के लिए लगाया। उपेंद्र राय, शशि राय का रिश्तेदार है। शशि राय को राष्ट्रीय सहारा में भी उपेंद्र राय ने ही लगाया था। एक महीने का वेतन तथा नियमित रूप से पूर वेतन देने के आश्वासन पर उपेन्द्र राय ने आंदोलन को तुड़वा दिया। हां इस आंदोलन के बाद उपेंद्र राय ने मुकुल राजवंशी और उत्पल कौशिक की बली जरू ले ली।

उपेंद्र राय ने आंदोलन तुड़वाने का रिवार्ड शशि राय को बनारस के संपादक के रूप में दिया। उस समय लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे पर मैंने कहा था कि शशि राय ने अपनी जिंदगी की यह सबसे बड़ी गलती की है। मैनेजमेंट के खिलाफ सड़कों पर उतरकर आप कभी भी मैनेजमेंट का आदमी नहीं हो सकते। दो आंदोलनकारियों की बर्खास्तगी और एक को संपादक बना देना। आंदोलन का बड़ा नुकसान था। आंदोलनकारी भले ही एक महीने के वेतन की उपलब्धि पर खुश हो रहे थे पर प्रबंधन ने अपनी चालाकी से आंदोलनकारियों को ठग लिया था। दो कर्मचारियों की बर्खास्तगी से प्रबंधन का मनोबल इतना बढ़ गया कि देहरादून से अरुण श्रीवास्तव व एक अन्य कर्मचारी को नौकरी से निकाल दिया गया।
आंदोलन की अगुआ चुप थे, तब मैंने कहा कि प्रबंधन की मनमानी का विरोध किया जाए, नहीं तो आगे इससे खतरनाक माहौल बनेगा। हुआ भी यही। अगले आंदोलन के अगुआ 21 कर्मचारियों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। यह आंदोलन शुरू हुआ मई 2016 में। इस आंदोलन की अगुआई की गीता रावत और मोहित श्रीवास्तव ने। यह ऐसा आंदोलन था कि ये लोग प्रबंधन से मिलकर इसे चलाना चाहते थे। यही वजह रही कि प्रबंधन को 21 आंदोलनकारियों की नौकरी लेने में कोई बहुत बड़ी रुकावट का सामना नहीं करना पड़ा।

दरअसल जब इन लोगों ने यूनियन का रजिस्ट्रेशन कराया तो कर्मचारियों को न बताकर समूह संपादक विजय राय के पास पहुंच गए तथा उनसे इस काम में सहयोग मांगा। यह इन लोगों की सबसे बड़ी गलती थी। तब मैंने कहा था मैनेजमेंट से मिलकर आप की कर्मचारियों की लड़ाई नहीं लड़ सकते। इस आंदोलन में भी मैंने कर्मचारी हित में प्रबंधन और मेरे खास माने जाने वाले विजय राय से बगावत कर अग्रणी भूमिका निभाई। आगे बढ़कर मुझे ही आंदोलन को संभालना पड़ा पर इस आंदोलन में इतनी बातें छुपाई जा रही थी कि कर्मचारियों में अविश्वास पैदा होने लगा। गीता रावत मंच से बार-बार अपने को टर्मिनेट कर देने की बात कर रही थी, जबकि मैं बार-बार आक्रामक भाषा का इस्तेमाल करने को कह रहा था। मैं खुद जब भी बोल रहा था तो प्रबंधन को मनमानी करने बाज आने को चेता रहा था। वही हुआ जिसका डर था। जब हम लोग चेयरमैन को घेरने दिल्ली गए तो पुलिस प्रशासन ने हम लोगों को जंतर-मंतर पर भेज दिया, जहां पर हम लोगों को संस्था की मनमानी के खिलाफ प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में प्रबंधन के कुछ मक्कार लोग भी थे, जिन्होंने गद्दार की भूमिका निभाई।

अगले दिन जब एक माह का वेतन दिया गया तो 21 कर्मचारियों का वेतन रोक लिया गया। मुझे कहीं से जानकारी मिल गई थी कि इन लोगों की नो एंट्री की तैयारी है। यह बात मैंने अपने भाषण में भी कही पर गीता रावत व मोहित श्रीवास्तव गलत लोगों के हाथों में खेल रहे थे। अगले दिन जब इन 21 लोगों की नो एंट्री कर दी गई तो इन लोगों की समझ में आया। इस बर्खास्तगी का इतना असर जरूर हुआ कि फिर से प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के सभी साथी गेट के बाहर आ गए।

राष्ट्रीय सहारा के मेन गेट पर बड़ा आंदोलन हुआ पर कर्मचारी ज्यादा दिन तक न टिक सके। मैंने गेट से भाषण देकर माहौल बनाने का प्रयास किया पर गीता रावत व मोहित श्रीवास्तव का कमजोर नेतृत्व के चलते कर्मचारी हम पर विश्वास न कर सके। मौके का फायदा उठाकर तत्कालीन समूह संपादक विजय राय ने अपना जाल बिछाया तथा संपादकीय विभाग के कुछ कर्मचारियों को लालच देकर आंदोलन को तुड़वा दिया गया। इस आंदोलन को तुड़वाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ब्रजपाल सिंह, मुफीज जिलानी, अशोक शर्मा, आरडी. शुक्ला और राजीव मंडल ने। इस आंदोलन में मुझे दो बातें महत्वपूर्ण लगती है। एक ब्रजपाल सिंह ने पहले आंदोलन की अगुआई की पर बाद में वह न केवल राजेश कुमार के सामने गिड़गिड़ाता देखा गया बल्कि दूसरे आंदोलन में विजय राय के लिए काम करने लगा। दूसरा गीता रावत की अगुआई में बनी यूिनयन स्पष्ट रूप से सामने न आ सकी, जिसका खामियाजा कर्मचारियों को उठाना पड़ा।

सहारा क्रांति में एक बात प्रमुखता से उभरकर आई कि विजय राय ने हर आंदोलन में प्रबंधन के पक्ष में माहौल बनाया तो मैंने कर्मचारियों के पक्ष में। हालांकि विजय राय का स्वभाव आंदोलनकारी का रहा है पर उन्होंने भूमिहारी बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए एक बार नहीं दो बार आंदोलन को तुड़वाया। अब जब कॉमर्शियल प्रिंटिंग के 25 बर्खास्त साथी धरने पर बैठे थे तो आचार संहिता का भय दिखाकर उन्हें भी गेट से उन्होंने ही हटवाया। मेरे संबंध राजेश कुमार से भी अच्छे थे और विजय राय से तो बहुत ही अच्छे थे पर कर्मचारियों के हित में राजेश कुमार और विजय राय से टकराव लिया और इसके लिए मुझे गर्व है। अब जब कॉमर्शियल प्रिंटिंग के 25 कर्मचारियों को 17 माह का बकाया वेतन दिए बिना नौकरी से निकाल दिया है तो मैंने आगे बढ़कर आंदोलन की अगुआई की। इस आंदोलन की वजह से उनका काफी पैसा उन्हें मिल गया है। बाकी का प्रयास चल रहा है। मजीठिया वेज बोर्ड और बर्खास्तगी का केस अदालत में विचाराधीन है। हम लोग सड़क से लेकर कोर्ट तक इस लड़ाई को लड़ रहे हैं और निश्चित रूप से जितेंगे।

चरण सिंह राजपूत
राष्ट्रीय अध्यक्ष
फाइट फॉर राइट

1 comment:

Unknown said...

Inqalab jindabad Charan Singh Rajput Jindabad Fight for Right jindabad