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14.6.11

दिल्ली का कफन

बाग का सुख चैन सब खोने लगा है।
किस ओर जीवन और जन होने लगा है?
ग्रीष्म मेँ बदहाल, वर्षा मेँ चुभन है।
चीखता, चिल्ला रहा मेरा वतन है।
किन शहीदोँ की शहादत का असर है?
अब कहाँ वैसी जवानी, बाँकपन है।
स्वर्ग से रवि का पतन होने लगा है।
किस ओर जीवन और जन होने लगा है?
लफ्ज क्या थे? आबरु का जोश ही था।
एक नगमा सुन जगत मदहोश ही था।
ख्याल था, ख्यालात मिलते थे सभी के।
जो रहा बाकी उसे अफसोस ही था।
किन दरख्तोँ को यहाँ बोने लगा है?
किस ओर जीवन और जन होने लगा है?
खो गया सब, अब यहाँ बाकी नहीँ है।
मयख्वार हैँ, मय है मगर साकी नहीँ है।
फिर विलायत से मँगाया हाँथ तूने।
पूर्वजोँ की देश मेँ थाती नहीँ है।
यह कौन दिल्ली का कफन ढोने लगा है?
किस ओर जीवन और जन होने लगा है?

3 comments:

SANDEEP PANWAR said...

आपकी पोस्ट सत्य कह रही है।

Manoj Kumar Singh 'Mayank' said...

धन्यवाद बंधु।मैँ प्रसन्न हूँ कि सत्य को स्वीकार करने वाला कोई तो मिला।यहीँ पर एक थर्ड डिग्री मिसाइल है जो किसी दूसरे ही जगत से आया लगता है।आपका आभार।

Manoj Kumar Singh 'Mayank' said...

धन्यवाद बंधु।मैँ प्रसन्न हूँ कि सत्य को स्वीकार करने वाला कोई तो मिला।यहीँ पर एक थर्ड डिग्री मिसाइल है जो किसी दूसरे ही जगत से आया लगता है।आपका आभार।