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24.6.11

मर्यादा की मजबूरी...आखिर तब तक?




- अतुल कुशवाह

हम जख्म भी झेलें और जलालत भी! भारत और पाकिस्तान के रिश्तों की यह उलटबांसी नै नहीं है. हर बार रिश्ते सुधारने की बातचीत में भारत को बड़प्पन का बोझ उठाना पड़ता है, जबकि पाकिस्तान कूटनीति भी फिदायीन अंदाज में करता है. मर्यादाओं के दायरे तोड़कर भी वह शहादत का ख़म ठोंकता है और हम अपमान का घूँट पीने के बावजूद दोस्ती का हाथ बढ़ाने को मजबूर नजर आते हैं. बातचीत की मेज अक्सर यह सवाल छोड़ जाती है कि आखिर ऐसा क्यों और कब तक..?
किस्सा आगरा का हो, हवाना का या फिर शर्म-अल शेख और अब इस्लामाबाद का, हर जगह पाकिस्तान के हुक्मरान संकेतों में ही सही, लेकिन नीचा दिखने का कोई मौका नहीं चूकते. कूटनीति में जहाँ इशारों और हाव-भाव की खासी अहमियत मानी जाती है वहां सुनियोजित चूकों का इतिहास पाकिस्तान की नीयत पर सवाल खड़े करने को मजबूर करता है. वैसे भी पहली गलती हो तो उसे चूक माना जाये, दोबारा हो तो संयोग, लेकिन तीसरी बार भी वही गलती हो तो उसे नीयत में खोट नहीं तो और क्या कहा जाए?
मुंबई हमले के बाद भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम जब पहली बार पाकिस्तान गए तो द्विपक्षीय वार्ता की मेज पर भारतीय ध्वज उल्टा था. गृहमंत्री और भारत ने इसे मानवीय भूल बताकर टाल दिया.मगर पाकिस्तान के प्रति सख्त रवैया रखने वाले चिदंबरम से बातचीत के दौरान तिरंगा उलटा रखने को महज संयोग की वजाय इरादतन शरारत मानने वालों की भी कमी नहीं है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अप्रैल २००५ में जब जनरल परवेज मुशर्रफ भारत पहुंचे थे तो उनके विमान में तिरंगा उलटा था.वहीँ जब २००६ में भारतीय क्रिकेट टीम पाकिस्तान के दौरे पर थी तो न केवल उनके होटल में भारतीय ध्वज उलटा था.बल्कि पेशावर में खेले गए एक दिवसीय मैच के लिए बेचीं गई टिकटों पर भी. बार-बार और बिना किसी चूक के तिरंगा उलटा करने की चूक को बदनीयती न भी कहें तो यह मानना भी मुश्किल है कि पाकिस्तान में भारत का झंडा नहीं पहचाना जाता. इसी तरह २००१ कि आगरा शिखर वार्ता में मुशर्रफ का मेजबान से पहले ही वार्ता को असफल बताने का पैंतरा हो या फिर भारतीय विदेश मंत्री एस.एम्.कृष्णा के पाकिस्तान में रहते ही कैमरों के आगे शाह महमूद कुरैशी का बडबोलापन.द्विपक्षीय बातचीत का हर पड़ाव भी ऐसी कई शरारतों के घाव छोड़ जाता है. बीच-बीच में कई बार ऐसा हुआ है कि भारतीय पक्ष ने पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी के सामने नजरंदाज कर सख्त सन्देश दिया है.मसलन पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने २००३ में पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ को बिलकुल तवज्जो न देकर अपनी नाराजगी का इजहार किया था. इसी तरह २००९ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को मीडिया के सामने कठघरे में खड़ा कर तगड़ा जवाब दिया था.अब जुलाई में कृष्णा और पाकितानी राज्य विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार एक-दूसरे से मुखातिब होंगे.इस मुलाकात में कृष्णा हिना रब्बानी से मुस्कराकर मिलें तो भी इतना जरुर बता दें कि भारत की कूटनीतिक मर्यादा उसकी मजबूरी नहीं है

4 comments:

शिखा कौशिक said...

सार्थक आलेख आपके द्वारा प्रस्तुत .आभार

Atul kushwah said...

Dhanyabaad shikha ji...Sadar- Atul

वनमानुष said...

पाकिस्तान की प्रवृत्ति हमेशा से उकसाऊ रही है.पाकिस्तान का जन्म और पालन पोषण ही हिन्दुस्तान विरोधी मानसिकता से हुआ है.परन्तु ये हमारी जिम्मेदारी है कि पाकिस्तान के उकसावों में न आयें.कुछ उकसावों को नजर अंदाज करके हम पाकिस्तानी राजनेताओं की राजनीति धूमिल कर सकते हैं,जिनके पास अपनी जनता को देने के लिए हिंदुस्तान विरोध के अलावा कुछ बाकी नही है.
पाकिस्तान को प्रत्युत्तर देने के लिए हमें मुंह चलाने की आवश्यकता नहीं है,हमारा निरंतर मौन विकास ही उनकी खीझ बढाने के लिए पर्याप्त है.

Atul kushwah said...

Bilul sahi kaha apne Vanmanush ji...