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8.3.10

महिला आरक्षण का राजनीतिक महाख्यान

सन् 1970 के बाद तेजी से स्त्रीवादी आन्दोलन का विकास होता है और इसी दौर में मार्क्सवादी स्त्रीवादी सैद्धान्तिकी ने यह माना कि स्त्री के संदर्भ में मार्क्सवादी नजरिए में कुछ कमियां रही हैं। स्त्रीवादी मार्क्सवादी विचारकों ने पहलीबार घरेलू श्रम को श्रम माना। घरेलू श्रम के कारण स्त्री के होने वाले शोषण पर रोशनी डाली गयी। भारत में कुछ विश्वविद्यालय हैं जहां मार्क्सवादी अर्थशास्त्री पढ़ाते हैं। ये लोग निरंतर अर्थशास्त्र के मसलों पर लिखते रहते हैं। इनके लेखन का मुख्य क्षेत्र है अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध और उससे जुड़ी समस्याएं। इन लोगों ने कभी महिला के आर्थिक सवालों पर विचार नहीं किया। भारत में स्त्रीवादी विचारकों ने आरंभ में स्त्री के जबरिया श्रम का दस्तावेजीकरण किया।इसके बाद ऐतिहासिक नजरिए से क्षेत्र विशेष में सेंनसस औए गजट आदि के आंकड़ों के आधार पर स्त्री का मूल्यांकन किया गया। औरतों की शिरकत में आयी गिरावट को तकनीकी परिवर्तनों के साथ जोड़कर देखा गया। इसके कारण औरतों के काम के क्षेत्रों के खत्म हो जाने को रेखांकित किया गया। खासकर खनन,कपड़ा आदि क्षेत्रों में औरत के काम के अवसर खत्म हो जाने की ओर ध्यान खींचा गया। इसके अलावा उपनिवेशवाद और निजीकरण के प्रभाव का भी अध्ययन किया गया। सन् 1974 में पहलीबार महिलाओं की अवस्था पर जो राष्ट्रीय रिपोर्ट आयी उसमें स्त्री की गिरती हुई अवस्था पर गहरी चिन्ता व्यक्त की गई। साथ ही परंपरागत अर्थव्यवस्था में औरत के स्पेस के सवाल पर पहलीबार गंभीरता से विचार किया गया।

इसी रिपोर्ट में पहलीबार यह दरशाया गया कि औरतें घर में क्या-क्या काम करती हैं। इसके आंकड़े पहलीबार सामने आए।ये आंकड़े अर्थषास्त्र का हिस्सा बने,इस प्रकार स्त्री का श्रम पहलीबार अर्थषास्त्र में दाखिल हुआ। बाद में स्त्री के किन कार्यों में पगार कम मिलती है, सेंसस में औरतों के आंकड़े किस तरह मेनीपुलेट किए जाते रहे हैं , कृशि क्षेत्र में औरतों के श्रम से जुड़ी समस्याएं क्या हैं, मानव विकास जेण्डर डवलपमेंट इण्डेक्स की महत्ता, भूमंडलीकरण और नव्य उदारतावादी आर्थिक नीतियों के औरतों पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में अध्ययन हुए हैं।

सन् 1996 में पहलीबार महिला आरक्षण विधेयक पेश किया गया था। तबसे लोकसभा -में मांग उठती रही है। पंचायतों में 33 फीसदी आरक्षण लागू हो चुका है।हाल ही में केन्द्रीय मंत्रीमंडल ने इसे स्वीकृति दे दी है और उम्मीद की जा रही है कि 8मार्च 2010 को इसे संसद से स्वीकृति मिल जाएगी। इस समय कांग्रेस,भाजपा,वाम,टीडीपी,बीजू जनतादल वगैरह का इस विधेयक को समर्थन मिल चुका है। सपा,बसपा,जद आदि विरोध कर रहे हैं।

इस प्रक्रिया का सर्वसम्मत परिणाम है महिला की राजनीतिक केटेगरी के रूप में स्वीकृति। यह इस बात का संकेत है कि समाज में औरतें आज भी काफी पीछे हैं। उन्हें अभी तक समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिला है। जेण्डर की केटेगरी के राजनीतिक क्षेत्र में प्रयोग के बारे में ऐतिहासिक तौर पर विचार करें तो पाएंगे कि स्त्री को राजनीतिक केटेगरी के रूप में गांधीजी के प्रथम असहयोग आन्दोलन में पहलीबार स्वीकार किया गया।

बाद में दूसरीबार 90 के दशक में राजनीतिक केटेगरी के रूप में स्वीकार किया गया। इसके अलावा सब समय स्त्री की उपेक्षा हुई है उसे राजनीतिक केटेगरी के रूप में देखने से हम इंकार करते रहे हैं।

सारी दुनिया के जितने भी जनतांत्रिक देश हैं वे महिलाओं को मतदान का अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। उदारवादी पूंजीवादी नजरिया यह मानता रहा है कि समाज, राजनीति,संस्कृति,तर्क,न्याय,दर्शन,पावर,स्वाधीनता आदि मर्द के क्षेत्र हैं। स्त्री और पुरूष दोनों अलग हैं। इनमें वायनरी अपोजीशन है। औरत की जगह प्राइवेट क्षेत्र में है। उसका स्थान निजी, व्यक्तिगत,प्रकृति,भावना,प्रेम,नैतिकता, इलहाम आदि में हैं।खासकर समर्पण में उसकी जगह है। यहां तक कि स्पेयर्स की सैध्दान्तिकी स्त्री को नागरिकता से वचित करती है। इस सवाल पर औरतों ने 18वीं षताब्दी से लेकर आज तक लम्बी लड़ाईयां लड़ी हैं जिनके परिणामस्वरूप स्त्रियों को बीसवीं के आरंभ में खासकर प्रथम विश्व युध्द की समाप्ति के बाद मतदान का अधिकार मिला। इन संघर्षों का विभिन्न देशों पर अलग-अलग असर हुआ।

सन् 1917 में वूमेन्स इण्डियन एसोसिएशन की ओर से सरोजिनी नायडू के नेतृत्व एक प्रतिनिधिमंडल मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड कमेटी से मिलने गया। जिसमें अन्य मांगों के अलावा यह मांग रखी गयी कि औरतों को मर्दों की तरह ही मतदान का अधिकार दिया जाए। इसमें शिक्षा और संपत्ति की शर्त्त लगी हुई थी। उल्लेखनीय है कि स्त्री के लिए सामाजिक क्षेत्र मे अपने लिए जगह बनाने का सवाल लम्बे समय से विवाद के केन्द्र में रहा है। सार्वजनिक स्थान और प्राइवेट स्थान के रूप में लंबे समय से स्त्री-पुरूष के बीच में विभाजन चला आ रहा है। इसे स्वाधीनता संग्राम के दौरान स्त्रियों ने चुनौती दी।भारतीय समाज में स्त्री को हमेशा सम्पूरक के रूप में देखा गया। उसके स्वतंत्र अस्तित्व को कभी स्वीकृति नहीं दी गयी। इसके खिलाफ स्वाधीनता संग्राम के दौरान भारतीय औरतों ने जमकर संघर्ष किया। बंगाल के स्वदेशी अंदोलन में सक्रिय सरलादेवी चौधरानी ने सन् 1918 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए कहा कि पुरूष -स्त्री के बीच बुद्धि और भावनाओं के आधार पर काल्पनिक विभाजन किया हुआ है।

स्त्री के सामाजिक जगत में पुरूष के साथ कामरेडशिप भी आती है जो उसके जीवन के सुख-दुख में शामिल होने से पैदा होती है। साथ ही राजनीति और अन्य क्षेत्र में सहकर्मी होने के कारण कामरेडशिप पैदा होती है। स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वली औरतें सोचती थीं कि राजनीति सिर्फ मर्दों का ही क्षेत्र नहीं है बल्कि इसमें औरतों की भी हिस्सेदारी होनी चाहिए। औरतें मांग कर रही थीं कि उन्हें मतदान का अधिका दिया जाए और महिलाओं को चुनने का अधिकार दया जाए। किन्तु ब्रिटिश शासकों ने इन दोनों मांगों के बारे में कोई निर्णय नहीं लिया और उसे प्रान्तीय परिषदों के ऊपर छोड़ दिया।

प्रान्तीय सरकारों को सन् 1919 के कानून के द्वारा यह अधिकार दिया गया कि वे चाहें तो इस संबंध में फैसले ले सकती हैं।

स्त्रियों को मतदान और औरतों को चुनने का अधिकार देने के मामले में औपनिवेषिक शासकों से ज्यादा उदार भारतीय लोग साबित हुए और सन् 1921 में बम्बई और मद्रास,सन् 1923 में संयुक्त प्रान्त,सन् 1926 में पंजाब और बंगाल और अन्त में सन् 1930 में असम,केन्द्रीय प्रान्तों,बिहार और उड़ीसा में स्त्रियों को मतदान का अधिकार प्रान्तीय सरकारों ने दे दिया । इसका अर्थ यह भी है कि भारत में औरतों को मतदान का अधिकार और महिला उम्मीदवारों को चुनने का अधिकार अंग्रेजों ने नहीं भारत की प्रान्तीय सरकारों ने दिया। संविधान में सुधार की दूसरी बड़ी प्रक्रिया सन् 1927 में साइमन कमीषन से शुरु होती है। विभिन्न सामाजिक समूहों जैसे मुसलमान,पिछड़े वर्ग और महिलाओं के लिए आरक्षण के सवाल पर गंभीर मंथन शुरू हुआ और ब्रिटिश सरकार इन समुदायों के आरक्षण के लिए राजी हो गयी। यह चरण 1935 में भारत सरकार के कानून पास किए जाने के साथ समाप्त होता है। इस कानून के मुताबिक पहलीबार इन समुदायों को आरक्षण मिलता है। पहलीबार महिलाओं के लिए अन्य 11 केटेगरी में बताए समूहों के साथ आरक्षित सीटें आवंटित की गईं।इस क्रम में ' महिला जनरल' के तहत मुस्लिम महिला,हिन्दू महिला और एंग्लो-इंडियन महिला के रूप में वर्गीकरण किया गया। इस तरह का महिलाओं के लिए किया गया वर्गीकरण इस बात को दरषाता है कि महिलाओं को एक समुदाय के रूप में राजनीतिक आरक्षण नहीं दिया गया।बल्कि धर्म के आधार पर आरक्षण दिया गया।

सन् 1930 के बाद के वर्षों में इण्डियन वूमेन ऑर्गनाइजेशन ने भारतीय राश्ट्रीय कांग्रेस के साथ मिलकर सार्वभौम वयस्क मताधिकार और चुनाव के अधिकार को लेकर आन्दोलन षुरू किया जिसकेकारण धीरे-धीरे स्त्री की राजनीतिक हिस्सेदारी का सवाल एकसिरे से गायब होता चला गया। इसके बाद जेण्डर की एक राजनीतिक केटेगरी के रूप में मौत हो गयी।

सन् 1930 में इण्डियन वूमेन ऑर्गनाइजेशन के अध्यक्ष का पदभार संभालते हुए सरोजिनी नायडू ने बम्बई में कहा कि औरतों के लिए विशेष अधिकार की मांग इस बात की स्वीकारोक्ति है कि औरतें इनफियर हैं। किंतु भारत में ऐसी कोई चीज नहीं है। महिलाएं हमेशा से कौंसिल और संघर्ष के मैदान में पुरुषों के साथ रही हैं। घर और बाहर दोनों में कोई झगड़ा नहीं रहा। हमें अपने मतभेदों का अतिक्रमण करना होगा। हमें राष्ट्रवाद, धर्म और सेक्स से ऊपर उठना चाहिए।

सन् 1935 से 1974 के बीच महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान का प्रस्ताव तीन बार खारिज हुआ। सन् 1939 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तहत नेशनल प्लानिंग कमेटी, जिसका गठन जवाहरलाल नेहरू और एस.सी.बोस ने किया था, इस कमेटी ने महिलाओं के लिए कोटा तय किए जाने वाले प्रस्ताव को एकसिरे से खारिज कर दिया। सन् 1950 में जब संविधान पास हुआ तब भी महिलाओं के लिए आरक्षण के सवाल को खारिज कर दिया गया।

इस संदर्भ में जनप्रिय तर्क यह था कि संविधान की नजर में स्त्री-पुरुष बराबर हैं,उनमें कोई भेद नहीं ह। इन दोनों के मूलभूत अधिकार एक हैं। अत: महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था करने की कोई जरूरत नहीं है।

किन्तु मजेदार बात यह है कि एससी,एसटी के लिए आरक्षण और आर्थिक तौर पर पिछडों के लिए विशेष परिस्थितियों में आरक्षण की बात को मान लिया गया। सन् 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में राष्ट्रीय पिछडावर्ग आयोग का गठन किया गया। अपनी रिपोर्ट में काका कालेलकर ने लिखा कि भारत में औरतों की विलक्षण स्थिति है।हम हमेशा महसूस करते हैं कि वे भयानक सामाजिक अभावों में जीती हैं अत: उन्हें पिछडावर्ग का दर्जा दिया जाना चाहिए। चूंकि वे अलग से समुदाय के रूप में नहीं हैं अत: हम उन्हें पिछडावर्ग की केटेगरी में नहीं रख पा रहे हैं। उच्च मध्यवर्ग और मध्यवर्ग में उनकी स्थिति थोड़ी बेहतर है।इस वर्ग में वे एक आत्मनिर्भर वर्ग हैं।जबकि पिछड़े वर्ग की औरतों की अवस्था अभी भी बेहद खराब है। वे समाज को पुनर्रूज्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। हम उनकी समस्याओं की अनदेखी नहीं कर सकते।

काका कालेलकर यह मानते थे कि महिला वर्ग है। किन्तु समुदाय नहीं हैं और मर्दों से अलग उनका कोई भविष्य नहीं है। तकरीबन इससे ही मिलते-जुलते विचार सन् 1974 में प्रकाशित कमेटी ‘ऑन स्टेटस ऑफ वूमेन इन इण्डिया’ के फॉरवर्ड में पेश किए गए। यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र संघ के महिला दशक (1975-1985) के आयोजनों के क्रम में

' टुवर्डस इक्वलिटी' के नाम से प्रकाशित हुई। इसमें स्त्री-पुरूष के बीच समानता की धारणा पर जोर दिया गया। इस रिपोर्ट ने आसानी से संविधान में वर्णित स्त्री-पुरूष की समानता और वास्तविक जिन्दगी के यथार्थ के बीच मौजूद अंतराल की अनदेखी की गई। और कहा गया कि महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया कि महिला समुदाय नहीं है। वह केटेगरी है। औरतों के लिए अलग से चुनाव क्षेत्र बनाने से उसका दृष्टिकोण सीमित हो जाएगा।महिलाओं की व्यापक राजनीतिक हिस्सेदारी को सुनिश्चित बनाने की बजाय कमीशन ने महिला पंचायत के गठन का सुझाव दिया।पंचायतों में महिलाओं की हिस्सेदारी के बाद राजनीतिक दल अपने महिला प्रतिनिधित्व में निरंतर इजाफा करेंगे और कालान्तर में विधानसभाओं में महिलाओं के कुल जनसंख्या के अनुपात में स्थान तय किए जा सकते हैं।

बाद के वर्षों में महिला आन्दोलन के बढ़ते हुए प्रभाव ने यह स्थिति पैदा की कि राजीव गांधी सरकार ने ' टुवर्डस इक्वेलिटी' के आंकड़ों को अपडेट करते हुए '' दि नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान फॉर वूमेन'' सन् 1988 में जारी किया। इस प्लान में सिफारिश की गई कि चुनी हुई जगहों पर महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित की जाएं।यह कार्य गांव से लेकर केन्द्र के स्तर तक करना होगा।राजनीतिक दलों को महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने के लिए 33 फीसदी महिलाओं को चुनाव टिकट देने चाहिए। इन दो सिफारिशों का अर्थ था जेण्डर की राजनीतिक केटेगरी के रूप में सर्वस्वीकृति। 8मार्च 2010 को संसद इसके ही आधार पर 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का विधेयक विचार करने जा रही है।

1 comment:

पूनम श्रीवास्तव said...

aadarnayasir,aajmahila diwas ke awasar par aapake vichaaron ki bhi prashansa ham karate hain.aaj ke yug me naari svatantra to hai aur jivan ke har chhketra me aage bhi badh gayi hai par mera maanana hai ki jivan ke is safar me istri aur purushh dono ko
hiek rath ki pahiye ki bhanti ek dusare ki jaruurat padti hai .purushhon nebhinaariyon ke andar chhupi pratibha ko swikara aur unake lakshya prapti men unaki housala aafzai ki na ki unke astitva ko pahachan kar nakara.dhanyvaad.------------poonam