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14.11.12

क्यों बेशर्म है पुलिस ?

बलात्कार एक ऐसी घटना है जो कहीं न कहीं पीड़िता और उसके परिजनों के लिए समाज के बीच में एक दीवार खड़ी कर देता है...जबकि दोष पीड़िता और उसके परिजनों का नहीं बल्कि समाज में मनुष्य के भेष में घूम रहे ऐसे भेड़ियों का होता है...जो किसी मानसिक विकृति के शिकार होते हैं। बलात्कार के मामले में पीड़िता के साथ ही पीड़िता के परिजनों को भी न सिर्फ मुश्किल बल्कि शर्मनाक दौर से गुजरना पड़ता है। ऐसे में अक्सर इन सब चीजों से बचने के लिए अधिकतर मामलों में पीड़िता और पीड़िता के परिजन पुलिस में शिकायत करने से भी घबराते हैं। जो लोग शिकायत करने भी पुलिस के पास जाने की हिम्मत जुटाते हैं तो रही सही कसर हमारी पुलिस पूरी कर देती है। पुलिस का रवैया शर्मनाक ही नहीं बल्कि बहुत आपत्तिजनक होता है...वे दोषियों को पकड़ने में कम बल्कि ऐसे ऐसे सवाल पीड़िता और पीड़िता के परिजनों से करते हैं मानो अपराध बलात्कारियों ने नहीं बल्कि पीड़िता और उसके परिजनों ने किया हो...कुछ एक अपवाद छोड़ दें तो अधिकतर मामलों में तस्वीर कुछ ऐसी ही होती है। कुछ एक मामलों में पुलिस का रवैया अत्यंत सहयोगात्मक भी देखने को मिला है...जो मैंने अपनी पत्रकारिता के दौरान महसूस किया है। खैर बड़ी संख्या में ये स्थिति देखने तो नहीं मिलती है। बलात्कार के अधिकतर मामलों में आरोपी बड़े परिवार से संबंध रखने वाले होते हैं...और समाज के साथ ही राजनीति में भी उनका खासा रसूख देखने को मिलता है....ऐसे में कहीं न कहीं इनके आगे पुलिस भी घुटने टेकते नजर आती है। बलात्कार के मामलों में रसूखदारों के आगे पुलिस की एक नहीं चलती या यूं कहें कि पैसे और ताकत के आगे पुलिस गांधी जी के तीन बंदरों की समान हो जाती है और पुलिस की नाक, कान और आंख सब बंद हो जाती है। अगर गहराई से देखें तो किसी थाने का थानेदार अगर चाहे तो उसके इलाके में अपराध 90 प्रतिशत तक कम हो सकते हैं....बशर्ते वह ऐसा चाहे...लेकिन अफसोस ऐसा होता नहीं है। खासकर बलात्कार के मामलों में तो पीड़िता आसानी से दोषियों की पहचान कर सकती है...लेकिन पुलिस इन मामलों में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहती है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि बलात्कार के कुछ एक मामलों में बलात्कार की पीड़िता झूठे आरोप लगाकार कुछ लोगं को फंसाने की कोशिश करती हैं...या कहें अपने फायदे के लिए ऐसे आरोप लगाती हैं...लेकिन ये मामले इतने कम देखने में आते हैं कि ऊंगलियों में गिने जा सकते हैं। बलात्कार की घटना पीड़िता के जीवन में घटित एक ऐसी घटना है कि मैं तो कम से कम ये नहीं मानता कि कोई पीड़िता जानबूझकर अपने फायदे के लिए खुद बलात्कार की पीड़िता कहलाना पसंद करेगी...ये सब कुछ पीड़िता के सामाजिक चरित्र पर भी निर्भर करता है...वो क्या करती है और समाज में उसकी कैसी छवि है....ये सब जानने के बाद ही हम इस बारे में कुछ पूर्वानुमान लगा सकते हैं कि वाकई में जो बलात्कार के आरोप उसने किसी पर लगाए हैं उनमें कितना दम हो सकता है। ये बात सही है कि पुलिस बिना जांच पड़ताल के मामले में दोषी को गिरफ्तार कर ले...या आगे की कार्रवाई करे...जांच  पड़ताल किसी भी घटना का एक बहुत अहम हिस्सा है...लेकिन जिस तरह शिकायत करने पर पुलिस का पहला रिएक्शन रहता है वो कहीं न कहीं पीड़िता के मन से पुलिस का विश्वास डिगाने का काम करता है...ऐसे मामलों में कहीं न कहीं पुलिस का रवैया सहयोगात्मक होना बहुत जरूरी है...माना पुलिस को लगता है कि शिकायत पीड़िता जानबूझकर फंसाने के लिए कर रहा है तो पुलिस को फिर भी पीड़िता की बात को सुनकर उसे कार्रवाई का आश्वासन देना चाहिए...और जांच पड़ताल में पुलिस को लगता है कि शिकायत फर्जी है तो फिर पुलिस शिकायत करने वाले के खिलाफ सख्ती से पेश आते हुए उल्टा उसके खिलाफ कार्रवाई करे...इससे न सिर्फ पुलिस की एक स्वच्छ और सहयोगात्मक छवि आम लोगों के बीच में जाएगी बल्कि अपने फायदे के लिए झूठी शिकायत करने वाले भी ऐसा करने से पहले सौ बार सोचेंगे। बहरहाल वर्तमान स्थिति और पुलिस का रवैया तो कहीं न कहीं पुलिस को सवालों के घेरे में खड़ा तो करता ही है...जो पुलिस के लिए शर्मनाक है और यही स्थिति शायद इसीलिए किसी न्यायाधीश को ये टिप्पणी करने पर मजबूर करती है कि – “बलात्कार के केस में पुलिस पीड़िता के दर्द और उसकी परेशानियों को नजरअंदाज कर देती है...जब तक खुद उनके परिवार में किसी के साथ यह हादसा घटित नहीं होगा तब तक उन्हें बलात्कार के दर्द का एहसास नहीं होगा

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