Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

16.11.12

अब किस हाल में है लीबिया

फी की बरसी पर झूमता लीबिया
साल भर पहले 20 अक्टूबर को जब लीबिया में मुअम्मर अल गद्दाफी का तख्त गिरा और ताज उछला, तब पूरी दुनिया ने हम देखेंगे हम देखेंगे कह तमाशा देखा. विद्रोहियों ने गद्दाफी को तो मिटा दिया पर अब किस हाल में है देश.
20 अक्टूबर 2011, खबर आई कि लीबिया का तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी पकड़ा गया है. लड़ाई में खुद को हारता देख गद्दाफी ने काफिले के साथ भागने की कोशिश की. इस दौरान फ्रांसीसी वायुसेना के लड़ाकू विमान ने काफिले पर हमला किया. 14 गाड़ियां भस्म हो गई. एक बेटे समेत 53 साथी मौके पर ही मारे गए. हमले में गद्दाफी के सिर पर भी चोटें आईं, लेकिन इसके बावजूद उसने अपने बचे खुचे करीबियों के साथ पैदल भागना शुरू कर दिया. इसी दौरान तानाशाह को विद्रोहियों ने पकड़ लिया. फिर गद्दाफी और उसके सभी करीबियों की मौत की खबर आई.
कुछ दिन बाद एक वीडियो सामने आया. वीडियो से पता चला कि विद्रोहियों ने बेरहमी से गद्दाफी की पिटाई की और उसे मार डाला. मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वाच अब भी गद्दाफी की मौत की जांच कर रही है. लेकिन इस वीडियो से लीबिया के लोगों को ज्यादा फर्क नहीं पड़ा. कई शहरों में लोग और विद्रोही नाचने गाने लगे. 34 साल की तानाशाही का आखिरकार अंत हो गया. कुछ महीनों बाद गद्दाफी का एक मात्र जिंदा बचा बेटा सैफ उल इस्लाम भी पकड़ा गया.
इसी पाइप में छुपे थे गद्दाफी
अब गद्दाफी इतिहास का हिस्सा हैं. उनका देश लीबिया धीरे धीरे लोकतंत्र की राह पर आने की कोशिश कर रहा है. उत्तरी अफ्रीका के इस देश में जुलाई 2012 में पहली बार कुछ निष्पक्ष ढंग से चुनाव हुए. पहली बार महिलाओं ने भी वोट डाले. मतभेदों के बावजूद अंतरिम सरकार का गठन किया गया. अंतरिम सरकार ने लोगों से हथियार डालने की अपील की. कहा कि बंदूक के बदले कार दी जाएगी.
गद्दाफी के डर से दूसरे देशों में निर्वासन झेल रहे कई लोग अब वापस लौट चुके हैं. वे प्रभावशाली पदों पर बैठे हैं और देश में लोकतांत्रिक ढांचा तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि राजनीतिक पार्टियां खड़ी हों, अदालतें बनें, सरकार और न्यायापालिका के अधिकार स्पष्ट ढंग से बंटे हों. लोग जानते हैं कि गद्दाफी के शासन में लोकतंत्र का मतलब टेलीविजन से एकतरफा संदेश हुआ करता था. उस दौर में पार्टियां और नागरिक संगठन दिखावा थे.
इराक और जर्मनी से वापस लौटने वालों में गद्दाफी विरोधी व मानवाधिकार कार्यकर्ता अली जिदान भी हैं. संसद ने उन्हें कार्यकारी सरकार के गठन की जिम्मेदारी दी है. कई लीबियाई इससे खुश नहीं हैं. वे सवाल करते हैं कि विदेश में आराम की जिंदगी बिताने वालों को देश का भाग्य तय करने का अधिकार किसने दिया. विरोधियों के मुताबिक गद्दाफी के शासन के दौरान उन्होंने बुरा दौर देखा, ऐसे में अब उन्हें बेहतर पद दिये जाने चाहिए.
हथियार दो, कार लो
पुराने उग्रपंथी भी अब सिस्टम का हिस्सा हैं. वे रक्षा और गृह मंत्रालय जैसे विभागों में घुस गये हैं. आम लीबियाई इन पदों की ख्वाहिश करने को किसी जुर्रत से कम नहीं समझते. अब भी बहुत से युवाओं ने हथियार नहीं डाले हैं. गद्दाफी समर्थक विद्रोही गुट अब भी कुछ इलाकों में नियंत्रण करने की कोशिश कर रहे हैं.
लीबिया में कच्चे तेल का बड़ा भंडार हैं. जनसंख्या भी ज्यादा नहीं है, लेकिन इसके बावजूद बेरोजगारी दर अब भी बहुत ज्यादा है. भूमध्यसागर के दक्षिणी तट पर बसा और दक्षिणी यूरोप का पड़ोसी लीबिया पर्यटन और तेल उद्योग से चमक सकता है, लेकिन चुनौतियां भी हैं. नई बयार के नेताओं पर भ्रष्टाचार और फिजूलखर्ची के आरोप लग रहे हैं. गृहयुद्ध की वजह से देश की आधारभूत संरचना तबाह हो चुकी है. हर संस्थान कड़े सरकारी नियंत्रण में है. नियंत्रण ढीला पड़ेगा लेकिन इसके लिए आम जनता को विश्वास में लेना होगा.
ओएसजे/एमजे (डीपीए)

No comments: