मानवीय जीवन को सरलता और सार्थकता से जीने की कला को विकसित करना ही शिक्षा है। किसी भी देश में उसमें निवास करने वाले लोगों को सभ्य और उन्नत बनाने का एक साधन है शिक्षा। यदि किसी भी देश में शिक्षा व्यवस्था ठीक नहीं है तो उस देश की रीढ़ भी कमजोर होगी। सम्पूर्ण जगत में शिक्षा को लेकर एक अलग तरह का उत्साह देखने को मिलता है। प्रत्येक राष्ट्र अपने नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण एवं संस्कारित मूल्यपरक शिक्षा प्रदान करने की हर संभव प्रयास करता है। भारत ने भी आज से कुछ वर्षों पूर्व 1 अप्रैल 2010 को ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून पारित करके इस तरफ अपना एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम उठाया है जिसके अंतर्गत 6 से 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को निःशुल्क, अनिवार्य और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने का वायदा भारत सरकार ने अपने देशवासियों से किया। प्रत्येक हर देश में प्राथमिक शिक्षा अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखती है। देश के बालकों को संस्कारित और चरित्रवान वटवृक्ष के रूप में तैयार करने का प्रथम सोपान है प्राथमिक शिक्षा। अगर प्राथमिक शिक्षा का यह उपजाऊ बीज है स्वयं ही दूषित और विकृत होगा तो कैसे उपजेगी संस्कारित पौध?
भारत में ‘शिक्षा का अधिकार’ नामक अधिनियम एक ऐसी ही पहल थी जिसके चलते अब भारत के लगभग उन लाखों-करोड़ों बच्चों को पढ़ने का अवसर मिलना था जो इससे वंचित थे। महान् शिक्षाविद्, चिन्तक, विचारक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुषों के विचारों को हमने गहरी खाई में दफन कर दिया है। शिक्षा के सम्पूर्ण विकास के लिए डॉ. राधाकृष्ण का यह कथन “शिक्षा की गुणवत्ता के प्रश्न पर कतई और कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए। राजनीकि दबाव हो या सिफारिश या धन का लालच या और कुछ, शिक्षा की गुणवत्ता इनसे प्रभावित नहीं होनी चाहिए।“ को पूर्णतया भूला दिया गया है। जिसके कारण भारत में दिशाहीन और अनियन्त्रित शिक्षा प्रणाली अनजानी राहों में भटक रही है और उसके साथ ही भटक रहा है भारत वर्ष का सुनहरा भविष्य (शिक्षार्थी)। विद्यार्थियों में बढ़ती अनुशासनहीनता, अमर्यादित आचरण, बड़ों और शिक्षकों के प्रति बढ़ता अनादर का भाव को कैसे रोका जाय? यह बहुत बड़ा प्रश्न है? पारिवारिक विखण्डन, मानसिक अवसाद, सामाजिक विकृतियों और शिक्षा के अवमूल्यन को रोकना होगा हर हाल में।
जिस प्रकार शीशे पर गर्त चढ़ जाती है तो हमें साफ दिखाई नहीं देता उसी प्रकार सुदृढ़ और सार्थक शिक्षा नीति निर्धारण के अभाव में शिक्षा और शिक्षक ‘बेचारा’ बन कर रह गया है। वर्तमान समय में शिक्षक शिक्षण के अलावा बावर्ची, र्क्लक, हैल्पर, सर्वेयर आदि अनेकों कार्य करने को मजबूर है जिसके कारण वह शिक्षा में नवाचार चाह कर भी नहीं ला सकता। शिक्षक (गुरु) पद का अवमूल्यन निरन्तर जारी है तो कैसे होगा नई पौध का चारित्रिक और बौद्धिक निर्माण?
प्राथमिक शिक्षा के आधार को करना होगा मजबूत
ऊँची ईमारत के निर्माण के लिए सुदृढ़ आधार का होना आवश्यक है ठीक उसी प्रकार योग्य नागरिक के निर्माण में बाल्यकाल से ही उचित मार्गदर्शन परिवार और स्कूल से मिले इसकी व्यवस्था करनी होगी। प्राथमिक शिक्षा देश की रीढ़ है, माध्यमिक शिक्षा उस विकास की रीढ़ को स्तंभित करने का माध्यम है और उच्च शिक्षा राष्ट्र के विकास को उत्कृष्टता की ओर ले जाने का जरिया है।
कुछ दिनों पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा जारी की गई रपट डायस(शिक्षा हेतु जिला सूचना व्यवस्था) प्राथमिक शिक्षा की कलई खोलती है यह रपट बताती है कि प्राथमिक शिक्षा के लिए चलाई जा रही अनेक महात्वाकांक्षी योजनाओं के बावजूद देश में पांचवीं तक के छात्रों की संख्या में पिछले एक साल में ही 23 लाख बच्चों की कमी आई है, रपट की मानें तो देशभर में पांचवीं और आठवीं में क्रमशः 13.24 करोड़ और 6.64 करोड़ यानी कुल 19.88 करोड़ बच्चे प्रारम्भिक शिक्षा हासिल कर रहे हैं। लेकिन इतनी बड़ी तादाद में बच्चों का प्राथमिक स्कूल से कम होना सवाल खड़ा करता है कि आखिर इतनी सुविधाओं के बावजूद ऐसा क्यों? कमी कहां हैं? इसको बदलना होगा।
शहरों के साथ-साथ ग्रामीण स्तर पर प्राथमिक शिक्षा का मजबूत आधार तैयार करना होगा
प्राथमिक शिक्षा जीवन निर्माण की प्रथम सीढ़ी (रीढ़ की हड्डी) है जिस पर दृढ़ता से कदम जमाना होगा। शिक्षा में राजनीति का कोई स्थान नहीं है, राजनीति मुक्ति शिक्षा जिसमें सभी वर्ग के बालकों को समान अवसर मिले की व्यवस्था करनी होगी? प्राथमिक विद्यालयों से जुड़े अध्यापकों के मनोबल में वृद्धि करनी होगी, उनके महत्व को समझना होगा ताकि वे अपने शतप्रतिशत योगदान आने वाली पीढ़ी के विकास में दे सकें। शिक्षक-अभिभावक के मध्य संवादहीनता को मिटाना होगा। बालकों के शैक्षिक विकास और अन्य गतिविधियों से अभिभावकों को सूचित करना होगा। विद्यालय में पंजीकृत विद्यार्थियों की शाला उपस्थिति में बढ़ोत्तरी हेतु विशेषकर बालिकाओं के ठहाराव के लिए कारगर कदम उठाने होंगे। विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात में संतुलन कायम करना होगा। प्रत्येक विद्यालय में शिक्षा व्यवस्था के साथ-साथ अन्य सहशैक्षणिक गतिविधियों को भी समान रूप से बढ़ावा देना होगा। विद्यालय में खेल का मैदान, शुद्ध पेयजल व्यवस्था, साफ शौचालय का पूर्ण प्रबन्ध निश्चित हो। परम्परागत किताबी शिक्षा के साथ-साथ नवीनतम शिक्षा तकनीक का प्रयोग। शिक्षा के बाजारीकरण पर रोक तथा सरकारी स्कूलों के स्तर में सुधार। भारत गांवों का देश है और अधिकांश आबादी गांवों में ही बसती है इसलिए भारत में ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा का विकास अत्यन्त महत्वपूर्ण है। स्तरीय शिक्षा की पहंुच भी ग्रामीण स्कूलों की चिंता का प्रमुख विषय है और वहां शिक्षकों की कम प्रतिबद्धता, स्कूलों में पाठ्य पुस्तकों की कमी और पढ़ने के सामान की कमी भी है। यदि इन स्कूलों में शैक्षणिक गुणवत्ता में सुधार को सही मायनों में लागू किया जाये तो ग्रामीण क्षेत्र के बच्चे भी महान काम करके सुदृढ़ भारत के निर्माण में अपने सपनों को साकार कर सकता है।
प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के बगैर उच्च शिक्षा की स्थिति अच्छी कैसे हो सकती है? देश के सरकारी स्कूलों से पब्लिक स्कूलों में बच्चों का लगातार बढ़ता पलायन तथा ट्यूशन की बढ़ती प्रवृत्ति बुनियादी शिक्षा को कमजोर बना रही है। केंद्र एवं राज्य सरकारों के प्रयासों के बावजूद भी शिक्षा की गुणवत्ता में कोई भी सुधार नहीं आया है। अब वह समय आ गया है कि शिक्षा की गुणवत्ता को सर्वाधिक अहमियत दी जाए।
शिक्षक दिवस की मंगलमय शुभकामनाओं के साथ.... जय हिन्द! वन्देमातरम्!!
विवेक मित्तल
समाजसेवी, विचारक एवं स्वतन्त्र लेखक
अध्यक्ष
श्रीमती शशिबाला मित्तल स्मृति चेरिटेबल ट्रस्ट
जे.एन.वी. कॉलोनी, बीकानेर
2.9.15
सुदृढ़ प्राथमिक शिक्षा से उपजेगी संस्कारित पौध
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