भारत के संविधान के अनुच्छेद 50 में कहा गया है कि राज्य की लोक सेवाओं में , न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने के लिए राज्य कदम उठाएगा | किन्तु 68 वर्ष की आजादी में इस दिशा में क्या प्रगति हुई है चिंतन का विषय है| देश में 70 प्रतिशत जनता कृषि पर निर्भर है तथा कृषि भूमि ही उनकी मुख्य सम्पति है और कृषि भूमि के विवादों के निपटान के लिए राजस्व न्यायालय हैं जिन पर न्यायपालिका का नियंत्रण न होकर राज्य सरकरों का नियंत्रण है| इसके अतिरिक्त सेवा, कर, श्रम, स्टाम्प, उपभोक्ता, सूचना, सहकारिता आदि बहुत से मामलों के लिए विशेष न्यायाधिकरण कार्यरत हैं जिनमें विभागीय अधिकारी ही निर्णय करते हैं और ये सरकारों के नियंत्रण में ही कार्य करते हैं |
वास्तव में देखा जाये तो देश की न्यायपालिका के पास तो मात्र 10% न्यायिक कार्य ही है शेष तो आज भी कार्यपालकों द्वारा इन अधिकरणों में ही निपटाया जाता है | अधिकरण स्थापित करने का मूल उद्देश्य जनता को शीघ्र और सस्ता न्याय दिलाना बताया जाता है किन्तु फिर भी इनमें कितना विलम्ब होता है यह किसी से छिपा हुआ नहीं है| इतना ही नहीं सरकारों द्वारा आये दिन स्थापित किये जाने वाले इन नए नए अधिकरणों से न्यायपालिका का क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है क्योंकि जिस विषय को आज तक न्यायपालिका सुन रही थी वही विषय इन अधिकरणों के अधिकार क्षेत्र में आ रहे हैं और न्यायपालिका अब इन मामलों की सुनवाई नहीं कर सकती | क्या सरकार के ये कदम संविधान के सर्वथा प्रतिकूल नहीं हैं?
MANI sharma
maniramsharma@gmail.com
10.9.15
न्यायिक स्वतंत्रता
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