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11.2.09

मुझे सपरिवार इच्छा मृत्यु की इजाजत दो!

कुलदीप द्वारा मौत मांगने के एक साल मार्च महीने में पूरे होंगे। उन्हें अब तक न तो 'मौत' मिली और न जीने लायक छोड़ा गया। भारतीय लोकतंत्र के स्तंभों-खंभों ने उन्हें कोमा-सी स्थिति में रख छोड़ा है। कुलदीप मीडियाकर्मी हैं। इंदौर में हैं। 'नई दुनिया' से जुड़े रहे हैं। प्रबंधन ने कुलदीप से इस्तीफा देने को कहा था। उन्होंने नई नौकरी न ढूंढ पाने की मजबूरी बताई थी। प्रबंधन ने उनका तबादला कर दिया। बीमार पिता को छोड़ दूसरे शहर में नौकरी करने जाने में असमर्थ रहे कुलदीप। सो, कुलदीप ने रहम की गुहार लगाई।

प्रबंधन को किसी गुहार या बीमार से क्या मतलब! थक हार कर कुलदीप ने 30 मार्च 2008 को राष्ट्रपति को पत्र लिखा। सपरिवार इच्छा मृत्यु की अनुमति मांगी। जाहिर है, पत्र लिखने से पहले कुलदीप ने कई महीने ऐसे हालात झेले जिससे उन्हें मृत्यु वरण करने के लिए मंजूरी मांगने को मजबूर होना पड़ा। ये हालात पैदा किए 'नई दुनिया' प्रबंधन ने। राष्ट्रपति को चिट्ठी भेजने से बस इतना हुआ कि एक पुलिस वाला आया और 'क्यों मरना चाहते हो' सवाल का जवाब कुलदीप के मुंह से सुनकर बयान दर्ज कर ले गया। कुलदीप मामले को लेबर कोर्ट में ले गए तो वहां जाने किसके इशारे पर सिर्फ सुनवाई की तारीख दर तारीख तय हो रही है, हो कुछ नहीं रहा है।

कुलदीप ने जिन दिनों राष्ट्रपति को पत्र लिखा, उनके पिता गंभीर रूप से बीमार हुआ करते थे। आर्थिक तंगी से परेशान कुलदीप पिता के इलाज के लिए दर-दर भटके। एक-एक रुपये इकट्ठा किया। बेहतर इलाज कराने की कोशिश की। पर पिता को बचा न सके। पिता गुजर गए। पिता रेवेन्यू डिपार्टमेंट में पटवारी थे। उनकी पेंशन अब कुलदीप की मां को मिलने लगी है। कुलदीप का इकलौता बेटा 12वीं में है। मां को मिलने वाली पेंशन की रकम से कुलदीप समेत चार जनों का खाना-खर्चा चल रहा है। नून-तेल-साबुन खरीदा जा रहा है। बच्चे की फीस भरी जा रही है।

बरस बीत गए पर दुख-दर्द जस के तस हैं। सिस्टम न्याय करने का भरपूर 'प्रयास' करता दिख रहा है पर हो नहीं पा रहा है। न्याय होगा कब, यह नहीं पता। प्रबंधन से जुड़े लोग दिन दूना रात चौगुना तरीके से फल-फूल रहे हैं। भांति भांति के बहानों से जगह-जगह सम्मानित-सुशोभित हो रहे हैं। पर कुलदीप को कौन पूछे? कुलदीप को न तो लटके-झटके आते हैं और न दांव-पेंच। कुलदीप न तो दंदफंदी हैं और न धंधेबाज। कुलदीप न तो बेइमान बन पाए हैं और न रीढ़ निकाल पाए हैं। कुलदीप में वो सारी खामियां हैं जो इन दिनों के सिस्टम को स्वीकार्य नहीं है क्योंकि सिस्टम केवल एक सिद्धांत से चलता है, और वो है- तुम मुझे लाभ दो, मैं तुम्हें लाभान्वित करूंगा।

कुलदीप पहले दैनिक भास्कर, इंदौर में थे। नई दुनिया ने उनके आवेदन पर उन्हें अपने यहां प्रूफ रीडर के बतौर रखा और छह माह में संपादकीय विभाग का हिस्सा बना देने का वादा किया पर वो छह माह दस साल बाद भी नहीं आया। प्रूफ रीडर पद जब अखबारों में खत्म किए जाने लगे तो नई दुनिया प्रबंधन को कुलदीप भी अतिरिक्त खर्चे की तरह आंखों में खटकने लगे। लाभ कमाने में यकीन रखने वाला मीडिया हाउसों का प्रबंधन घाटे का सौदा भला कितनी देर तक बर्दाश्त करता। कुलदीप से पहले तो सीधे कहा गया कि इस्तीफा दो। कुलदीप ने मना किया तो तबादला कर दिया गया। फिर शुरू हुआ कुलदीप के मुश्किलों का दौर जिसे जीते-जीते लगभग दो वर्ष गुजार चुके हैं।

कुल मिलाकर कुलदीप अभी मरे नहीं हैं, यह एक भौतिक सच है लेकिन अंदर से कुलदीप ने खुद को मरते-जीत कितनी बार देख लिया है, ये उनका दिल जानता है। हर दो महीने बाद आने वाले तीज-त्योहार में खुद को गुम-सुम और बेबस पाने वाले कुलदीप को शिकायत किसी से नहीं है। शायद, गरीब के लिए दुखों-शिकायतों-पीड़ाओं की अति ही इनसे मुक्ति का माध्यम है। इसी मुक्ति के सुबकते अवसादी मनोभाव में कुलदीप ने राष्ट्रपति को जो कुछ लिखकर चिट्ठी के रूप में भेज दिया, उसे हम यहां हू-ब-हू प्रकाशित कर रहे हैं, इस अनुरोध के साथ कि कृपया पढ़ने के बाद थोड़ी देर दुखी होकर फिर अपने-अपने काम में लग जाएं क्योंकि मंदी काल में ऐसे ढेरों कुलदीप-सुलदीप-प्रदीप मिलेंगे जिनके घर-परिवार का दीया बड़ी मुश्किल से जल रहा है। आखिर किस-किस को राहत देंगे आप। वैसे भी, राहत आजकल वो पाने को उत्सुक हैं जिनके पेट भरे-फूले हैं। गरीब को राहत देना लोक कल्याणकारी राज्य और इसकी लाडली कंपनियों का फर्ज नहीं रहा। लोक कल्याण का काम भी बाजार के हवाले है। बाजार तो बाजार है। इसे सिर्फ रोबोट चाहिए, नोट कमवाने वाले कुशल, पेशेवर और दक्ष रोबोट चाहिए। किसी संवेदनशील, ईमानदार और विचारवान मनुष्य की कतई जरूरत नहीं!

कुलदीप द्वारा राष्ट्रपति को भेज गए पत्र को पढ़ने के लिए क्लिक करें- मुझे मौत चाहिए

3 comments:

मेरी आवाज सुनो said...

yashwantji kuldeep to hamare saamne ek adhkachari arthvyavastha ke shikaar ke roop mein saamne aaye hain.Mediakarmi hone ke naate main bhi kamobesh usi dard ke saath kuldeep ke saath apne aapko khada paa raha hoon jaise aap khade hain.Per kya ab samay nahin aa gaya ki hum manmohini economy per nai bahas chheden.kuldeep to prateek hain apni jamaat ke un lakhon badnaseebon ke jinhonne raaton-raat apni rozi ka jariya kho diya.Nai aarthik neeti ko shaayad hum sabne haathon haath liya tha.Behad haseen sapne hamne dekh liye the apni our desh ki samruddhi ke.Mujhe lagta hai hum yahin galti kar gaye.Udaarikaran global concept tha jise china our Japan ne bhi apnayaper swadeshi ke saath mix karke.Hum yahin gachcha kha gaye.humne saare khidki-darwaaje khol diye.Gandhiji economist bhale hi nahin the lekin unhonne jis swadeshi ki tarafdaari ki thi vah gazab ki soch thi.Durbhagya hai ki Gandhian economy ko China our Japan ne to bakhoobi apna liya magar hum pichhad gaye .Vahan ek bhi Kuldeep nahin hamaare yahan rozana hajaaron ka hashra Kuldeep jaisa ho raha hai.
Yashwantji,kaisa ho yadi aap BHADAS per is bahas ko aage badhayen.Behad maarmik shuruat to aap kar hi chuke hain.

मेरी आवाज सुनो said...

yashwantji kuldeep to hamare saamne ek adhkachari arthvyavastha ke shikaar ke roop mein saamne aaye hain.Mediakarmi hone ke naate main bhi kamobesh usi dard ke saath kuldeep ke saath apne aapko khada paa raha hoon jaise aap khade hain.Per kya ab samay nahin aa gaya ki hum manmohini economy per nai bahas chheden.kuldeep to prateek hain apni jamaat ke un lakhon badnaseebon ke jinhonne raaton-raat apni rozi ka jariya kho diya.Nai aarthik neeti ko shaayad hum sabne haathon haath liya tha.Behad haseen sapne hamne dekh liye the apni our desh ki samruddhi ke.Mujhe lagta hai hum yahin galti kar gaye.Udaarikaran global concept tha jise china our Japan ne bhi apnayaper swadeshi ke saath mix karke.Hum yahin gachcha kha gaye.humne saare khidki-darwaaje khol diye.Gandhiji economist bhale hi nahin the lekin unhonne jis swadeshi ki tarafdaari ki thi vah gazab ki soch thi.Durbhagya hai ki Gandhian economy ko China our Japan ne to bakhoobi apna liya magar hum pichhad gaye .Vahan ek bhi Kuldeep nahin hamaare yahan rozana hajaaron ka hashra Kuldeep jaisa ho raha hai.
Yashwantji,kaisa ho yadi aap BHADAS per is bahas ko aage badhayen.Behad maarmik shuruat to aap kar hi chuke hain.

somadri said...

पढ़ने के बाद मेरा खून सुख-सा गया. इस उपभोक्तावादी बाज़ार में डार्विन का प्रतिपादित शब्द fail हो रहा है,
अब तो survival for fittest की लडाई में वोही ही जीत रहा है जिसने अपना जमीर मार दिया हो