Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

7.5.11

व्यंग्य - मुफ्तखोरी की बीमारी

राजकुमार साहू, जांजगीर, छत्तीसगढ़
बीमारी की बात करते हैं तो हर व्यक्ति, कोई न कोई बीमारी से ग्रस्त नजर जरूर आता है। बीमारी की जकड़ से यह मिट्टी का शरीर भी दूर नहीं है। सोचने वाली बात यह है कि बीमारियों की तादाद, दिनों-दिन लोगों की जनसंख्या की तरह बढ़ती जा रही है। जिस तरह रोजाना देश की आबादी बढ़ती जा रही है और विकास के मामले में हम विश्व शक्ति बनें न बनें, मगर इतना जरूर है कि यही हाल रहा तो जनसंख्या की महाशक्ति अवश्य कहलाएंगे। जनसंख्या बढ़ने के साथ ही बीमारियां भी हमारे शरीर के जरूरी हिस्से होती जा रही हैं। जैसे अलग-अलग तरह से लोगों के नाम होते हैं, वैसे ही आज शरीर में नई-नई तरह की बीमारियां पसरती जा रही हैं।
जब हम बढ़ती बीमारियों की बात कर रहे हैं तो अभी देश में पनप रही एक नई बीमारी की चर्चा होना स्वाभाविक लगता है और वह है, मुफ्तखोरी की बीमारी। जिसे देखो, उसमें इस बीमारी की चाहत नजर आती है। एक बात है, कई तरह की बीमारियों से शरीर को नुकसान पहुंचता है, मगर मुफ्तखोरी की बीमारी से शरीर खूब फलता-फूलता है। मेहनत की कमाई के बाद पेट में गए भोजन को पचाने के लिए हाथ-पैर मारना पड़ता है, लेकिन मुफ्तखोरी की कमाई को पचाया नहीं जाता है, बल्कि उसे हजम कर लिया जाता है। मुफ्तखोरी की कमाई से पेट इतना भर जाता है, जैसे लगता है कि इसके आगे, दुनिया भर की संपत्ति कम पड़ जाएगी।
देश में मुफ्तखोरी पूरे चरम पर है। जिसे जब मौका मिलता है, हर कोई अपना उल्लू सीधा करने से पीछे नहीं हटता। जब मुफ्तखोरी की सुगबुगाहट शुरू होती है तो हर कोई अपना हाथ आगे रखना चाहता है। मुफ्तखोरी हमारे खून में समा गई हैं, तभी तो भ्रष्टाचार, शिष्टाचार बन गया है। घर बैठे कोई चीज मुफ्त मंे मिले तो भला उसे कौन हाथ से जाने देगा ? ऐसा ही चल रहा है, सभी जगह। जनता वोट के नाम पर नेताओं के मुफ्तखोरी की शिकार होती हैं, फिर नेता पूरे पांच साल, मुफ्त में जनता को शिगूफा थमाती रहती है। जहां-तहां देखो, केवल मुफ्तखोरी की चिंता है। सरकार तो अपने फायदे के लिए मुफ्तखोरी को गिफ्ट में दे रही है और जनता भी ऐश को पूरी तरह कैश कर रही है। क्या कहें, आजकल एक नई परिपाटी चल पड़ी है, चिल्हर से मुफ्तखोरी की। ऐसा लगता है, जैसे बाजार में एक, दो व पांच रूपये की कोई अहमियत ही नहीं है। यहां भी केवल मुफ्तखोरी का तमगा गड़ा नजर आता है। जब, सब जगह मुफ्तखोरी का जलवा कायम है तो जाहिर सी बात है, उसका असर मुझ पर भी थोड़ी-बहुत तो होगी ही। लिहाजा मैं भी कुछ लिखने के पहले सोचने लगता हूं कि कहीं से तो कोई मुफ्त में विचार दे जाए, जिससे मैं एक सफल लिख्खास बनने कामयाब हो सकूं।

1 comment:

Unknown said...

ये तो बहुत बड़ी बीमारी है| और तो और इसका कोई उपाय भी नहीं समझ में आता ....आपके ब्लॉग के कुछ लेख पढ़े बहुत भडांस नकाली है आपने ....!!!