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12.12.11

मजबूत लोकपाल की मांग

अन्ना हजारे के एक दिन के अनशन को मिले व्यापक समर्थन और उनके मंच से हुई बहस से यह साफ हो गया कि देश एक मजबूत लोकपाल की उनकी मांग के साथ है। केंद्र सरकार भले ही अन्ना हजारे के एक दिवसीय अनशन से बेपरवाह दिखे, लेकिन वह देश को यह भरोसा दिलाने में सक्षम नहीं दिखती कि वास्तव में एक मजबूत लोकपाल विधेयक पारित होने जा रहा है। यह उम्मीद लोकपाल संसदीय समिति की रपट आने और सच तो यह है कि इस समिति के अध्यक्ष एवं कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी के इस कथन के साथ ही ध्वस्त हो गई थी कि हमारा काम किसी को खुश करना नहीं था। आखिर कोई समिति अपने ऐसे मसौदे पर गर्व कैसे कर सकती है जिसके अधिकांश सदस्य उससे असहमत हों और जो देश की जनता को खिन्न करने का काम करे। यह निराशाजनक ही नहीं, बल्कि आपत्तिजनक भी है कि इस समिति ने लोकपाल के तीन प्रमुख बिंदुओं पर संसद की भावना का सम्मान करना जरूरी नहीं समझा। आखिर संसद के जरिए बनी कोई समिति उससे बड़ी कैसे हो सकती है? यह विचित्र है कि संसदीय समिति खुद को संसद से बड़ी ही नहीं, बल्कि बुद्धिमान और दूरदर्शी भी साबित कर रही है। देश की जनता यह जानना चाहेगी कि आखिर इस समिति को संसद की भावना की उपेक्षा करने का अधिकार किसने दिया? यह समिति जिस तरह आम राय से रपट तैयार करने में समर्थ नहीं रही उससे यह स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि उसने संसद अर्थात देश की भावना का सम्मान करने के बजाय किसी अन्य एजेंडे पर काम किया। इस समिति के कामकाज से तो ऐसी कोई झलक मिली ही नहीं कि लोकतंत्र में जनता की इच्छा सर्वोपरि होती है। लोकपाल पर संसद की भावना के विपरीत मसौदे से आम जनता का बेचैन होना स्वाभाविक है। यह ठीक नहीं कि इस बेचैनी को समझने-शांत करने के बजाय सत्तापक्ष इस तर्क की आड़ में छिपने की कोशिश कर रहा है कि कानून संसद में बनते हैं। नि:संदेह कोई नहीं यह कह रहा कि कानून सड़क पर बनें, लेकिन किसी को यह भी बताना चाहिए कि 43 साल बाद भी लोकपाल कानून क्यों नहीं बन सका? चूंकि लोकपाल के मामले में कोई भी सरकार आम जनता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी इसलिए उसे यह जानने का अधिकार है कि अब जो कानून बनने जा रहा है वह कैसा है? यह हास्यास्पद है कि सत्तापक्ष अन्ना हजारे के मंच पर हुई बहस को खारिज करने की निरर्थक कोशिश कर रहा है। यदि केवल संसद में होने वाली बहस ही मायने रखती है तो फिर क्या कारण है कि प्रधानमंत्री लोकपाल के मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाने जा रहे हैं? कम से कम अब तो सत्तापक्ष को अपनी हठधर्मी छोड़नी ही चाहिए, क्योंकि टीम अन्ना जैसे लोकपाल की मांग कर रही है उसका समर्थन मुख्य विपक्षी दल के साथ-साथ अन्य अनेक विरोधी दल भी कर रहे हैं। सत्तापक्ष भले ही अन्ना हजारे के अनशन और उनके मंच पर हुई बहस को खारिज करे, लेकिन वह इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि प्रधानमंत्री का पद, निचली नौकरशाही और सीबीआइ को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने के मामले में वह अलग-थलग पड़ता दिख रहा है। अभी भी समय है, केंद्र सरकार को न केवल एक सशक्त लोकपाल व्यवस्था बनाने की ठोस पहल करनी चाहिए, बल्कि इस संदर्भ में आम जनता को भी भरोसे में लेना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करती और अन्ना फिर से अनशन-आंदोलन करने के लिए विवश होते हैं तो इसके लिए सरकार ही जिम्मेदार होगी।

saabhar:-dainik jagran

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