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30.12.11

आधुनिक बोधकथाएँ. ७ - " मैं संसदताई । "




आधुनिक  बोधकथाएँ. ७ -

" मैं  संसदताई । "






"लोकशाही  को  ठोकशाही   बनाने  की  ली   है  ठान..!!
अय आम जनता, भाड़  में जा,तुं  और तेरा लोकजाल..!!"

एक स्पष्टता- इस बोधकथा का, अपने  देश  की  लोकशाही  से कोई  लेना-देना  नहीं  है ।

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" मैं  संसदताई । "

( दरवाज़ा- "ठक-ठक,ठक-ठक,ठक-ठक ")

संसदताई-" आती  हूँ  बाबा, ये  सुबह-सुबह  ११  बजे  कौन  आ धमका..!! कौन  है ?"

लोकजाल-" संसदताई, मैं  लोकजाल..!!"

संसदताई-" कौन ?" 

लोकजाल-" लो..क..जा..ल..अ..!!"

संसदताई- (चिढ़ते हुए)" क्या है? तुम्हें  और  कोई  काम  नहीं  है क्या ? मेरे   पुराने   ठोकसभा  घर  से  तुझे  सहीसलामत  निकाला  तो  अब,  यहाँ   रोगसभा  में  भी  आ  धमका ? क्यूँ आया  है  यहाँ ? क्या  है ?"

लोकजाल- "कुछ  नहीं  ताई..!! मुझे  तो  अण्णा ने  भेजा  है..!!"

संसदताई-"अरे...!! फिर  अण्णा?  कौन  अण्णा..कहाँ   के  अण्णा ?"

लोकजाल-" संसदताई,  वह  अण्णा,  अण्णा   हजारेवाले  अण्णा..!!"

संसदताई- " अरे..!! कायका  हजारे, कहाँ  का  ह..जा..रे..!!  सौ - दो सौ  लोगों  को  इकट्ठा  करने  से, कोई   हजारे  बन  जाता  है क्या ?"

लोकजाल-"ताई, आप  अण्णा  को  कम  आंक  रही  है, क़रीब एक  लाख़  लोगों  ने, उनके  साथ  जेल  जाने  के  लिए  अपने नाम  दर्ज  करवाये  हैं..!!" 

संसदताई-" बस..!! सिर्फ  एक  लाख़ ? मैनें  तो  सोचा  था  ८० करोड़  लोग  नाम  दर्ज  करवायेंगे..!! सा..ले, भिख़ारी कहाँ के..!! लगता है, सभी  लोगों  को, अब  जेलख़ाने  की  रोटीयां  पसंद  आने  लगी  है..!! खैर,  ये  बता, मेरे  रोगसभा  के  यह  दूसरे  घर  पर  अभी  तुं  क्यों  आया है ? अब क्या  काम  है ?"

लोकजाल-"संसदताई, आपके  घरवाले  सभी  दल  के  सांसदो ने, झूठमूठ  का  हंगामा  मचा  कर,  मुझे  ख़ाली  हाथ  वापस  लौटा दिया  है..!! आप  उनको   बराबर  डाँटिएगा..!!"

संसदताई-" क्यों  भाई..!! मैं  उन्हें  क्यों  डाँटूं ?  मैं,  क्या  तेरी, नानी  लगती  हूँ ? चल, भाग  यहाँ  से  साले..!! मेरी  इंदिराताई  के   पोते   राहुल  को  तुमने, विरोधीयों  के  साथ  मिल  कर, खून  के  आंसु  रूलाया  है  और  अब  तुम  ये  चाहते  हो  की,  मैं तुम्हारी  मदद  करूँ, भाग  यहाँ  से..!!"

लोकजाल- " ताई,  मैंने  कुछ  नहीं  किया..!!"

संसदताई-" अबे  साले  अब  भोला  बनता  है ? (रोती सूरत बनाकर) मेरी   इंदिराताई   के   नन्हे-मुन्ने  मासूम   पोते  ने,  ज़िंदगी  में  पहली  बार..पहली  बार, सांसदो  से,  तेरे    लिए..सा..ले..तेरे  लिए , बंधारणीय   दरज्जा   माँगा  था,  सब ने  मिल  कर  उस दरज्जे  की  माँग  को  दरवाज़ा  दिखा  दिया? अब  उसकी   इंदिराताई   नहीं   है, इसीलिए  सब   मेरी   इंदिराताई  के  भोले  बेटे  को   ऐसे  सता  रहे  हो  ना ?"

लोकजाल-" हैं..ई..ई..!! ये  क्या  कह  रही  हैं  संसदताई..!!"

संसदताई-" क्यों ? लग  गई  ना  पिछवाड़े  मिर्ची ? याद रखना  हमारे  बेचारे  मासूम  पोते  का  कहा  अगर  किसी ने  भी,  न  माना  तो, मैं   बारबार-लगातार, तुझे  और  तेरे  अण्णा-फण्णा, जो  भी  है..!! सब  को  ख़ून  के  आसुं  रूलाती  रहूँगी..!! सालों...कमीनों, तुम  सब  इसी  बर्ताव  के  लायक  हो..!! नालायक, चल  अब  फूट  ले यहाँ  से..!!"

(" धड़ा..म..अ.अ.अ..!!" दरवाज़ा बंद ?)

लोकजाल-" औ...फौ..औ..औ..!! संसदताई  तो  हम पर ही बिगड़  गई..!! इस  बात  को  क्या  संसदताई  और  हमारे  सारे  प्रातःस्मरणीय,  कर्तव्यनिष्ठ  माननीय (?) सांसदो  की  ओर से हमें, नये  साल  की   मूल्यवान  सौगात  समझे  क्या ? और... नये  साल  के,  इस  मूल्यवान  फ्लॉप  उपहार  का, अब  हम  सब क्या  करेंगे?"

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दोस्तों, "अब हम सब क्या करेंगे?" इस सवाल का आपके पास कोई जवाब है ? है  तो   फिर  बताईए..ना..आ..प्ली..ई..ई.. झ!!

आधुनिक बोध- नये साल पर मिलनेवाला हर उपहार काम का हो ये ज़रूरी नहीं है, ख़ास कर के हमने जिन पर अनहद भरोंसा  किया  हो?


मार्कण्ड दवे । दिनांकः ३०-११-२०११.   

1 comment:

S.N SHUKLA said...

सार्थक और सामयिक पोस्ट, आभार.

नूतन वर्ष की मंगल कामनाओं के साथ मेरे ब्लॉग "meri kavitayen " पर आप सस्नेह/ सादर आमंत्रित हैं.