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22.12.11

मांगा था लोकपाल मिला मरा हुआ साँप-ब्रज की दुनिया

मित्रों,क्या आपके साथ कभी आपके किसी अपने ने विश्वासघात किया है?यक़ीनन किया है मियां.वर्तमान में देश को चलानेवाले नेता भी तो कोई गैर नहीं हैं,अपने ही हैं.धोखा देने की क्या गजब की क्षमता है इनकी?एक-एक मुँह में सैंकड़ों जुबान रखते हैं ये लोग.आज ६१-६२ सालों से ये लोग जनता को यह झूठा विश्वास दिलाने में लगे हैं कि देश में लोकतंत्र है.ऐसा लोकतंत्र जिसमें लोक की नहीं चलती,उनकी बिलकुल भी नहीं सुनी जाती बल्कि यह लोकतंत्र तो ऐसा लोकतंत्र है जैसा कि नेता चाहते हैं.यह नेताओं का,नेताओं के लिए और नेताओं के द्वारा लोकतंत्र है.हम चुनाव-दर-चुनाव धोखा खा रहे हैं.हम वास्तव में चुनावों में अपना प्रतिनिधि नहीं चुनते हैं बल्कि हालत तो ऐसी हो गयी हैं कि मानो हम बकरियां हैं और प्रत्येक चुनाव में हम अपने ही हाथों अपने कसाई का चुनाव करते हैं:-वो बेदर्दी से सर काटे 'आमिर' और मैं कहूं उनसे,हुजुर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता.
          मित्रों,अब हम लोकपाल के मुद्दे को ही लें जिसके चलते इस जिस्म में बहते खून को भी जमा देनेवाली सर्दी में भी केंद्र सरकार को पसीने आ रहे हैं.सरकार ने अप्रैल में बिल ड्राफ्टिंग कमिटी बनाई और अंत में अपनी मर्जी का बकवास बिल बनाकर संसद के आगे रख दिया.फिर वह बिल विचारार्थ स्टैंडिंग कमिटी में गयी और अब जब अंतिम रूप में पेश की गयी हैं तब पता चला है कि यह तो खोदा पहाड़ और निकली चुहिया भी नहीं बल्कि मरा हुआ साँप निकला;वो भी विषहीन और दंतहीन.देश ने माँगा था एक ऐसा हथियार जिसे हाथ में लेकर देशवासी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ सकें लेकिन थमाया तो झुनझुना थमा दिया.बस बजाते रहिए और छोटे बच्चे की तरह खुश होते रहिए.बिल बनाने वाली स्टैंडिंग कमिटी में लोग भी कैसे-कैसे थे किसी से छुपा हुआ नहीं है.इनमें से कोई है घोटाला विशेषज्ञ तो कोई जातिवादी राजनीति का प्रणेता है.
           मित्रों,यह कैसा लोकपाल है जो न तो किसी भ्रष्टाचारी के विरुद्ध स्वतः कोई कदम ही उठा सकता है और न तो खुद जाँच ही कर सकता है.फिर क्या करेगा देश ऐसा पोस्टमास्टरनुमा लोकपाल लेकर?अगर ५५ हजार लोग चाहिए ५५ लाख कर्मचारियों पर नजर रखने के लिए तो बहाल करिए.किसने रोका है आपको बहाल करने से?आप ५५ लाख लोगों को तो देश को लूटने के लिए बहाल कर सकते हैं लेकिन उस लूट को रोकने के लिए ५५ हजार को नहीं बहाल कर सकते?क्या सरकार यह बताएगी कि दो-ढाई सौ सीवीसी कर्मी भला कैसे इन ५५ लाख कर्मचारियों पर नियंत्रण रखेंगे?साथ ही इस बिल में यह प्रावधान भी कर दिया गया है कि भ्रष्टाचार में आरोपित लोगों को सरकार मुफ्त में २ सालों तक कानूनी सहायता देगी.क्या इस तरह मिटेगा भ्रष्टाचार?साथ ही निजी कंपनियों को भी इसमें कई प्रकार की राहत दे दी गयी है.क्या इस तरह से कम होगा भ्रष्टाचार?इस बिल में यह भी प्रावधान किया गया है कि राज्यों में लोकायुक्त राज्य पुलिस से मामलों की जाँच करवाएगा.जो प्रदेश पुलिस खुद ही भ्रष्टाचार का अड्डा है वो भला कैसे भ्रष्टाचार मिटाने में कैसे सहायक हो सकती है?क्या इस तरह से मिटेगा भ्रष्टाचार?बिल में लोकपाल में कम-से-कम ५०% से अधिक आरक्षण का प्रावधान किया गया है.इस तरह तो ९ में से कम-से-कम ५ पद आरक्षित हो जाएँगे.क्या यह उच्चतम न्यायालय के आरक्षण सम्बन्धी निर्णय के विपरीत नहीं है?साथ ही इसमें संविधान का घोर उल्लंघन करते हुए धर्म के आधार पर आरक्षण दे दिया गया है.ऐसे में अगर इस बिल को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया तब लोकपाल सम्बन्धी इस पूरी जद्दोजहद का और इस बिल का क्या होगा?
               मित्रों,राजमाता,त्यागमूर्ति सोनिया जी का कहना है कि उन्होंने जो लोकपाल दिया है वह बहुत सशक्त है;वाकई बहुत सशक्त है.उसको एक कार्यालय चलाने का अधिकार दिया गया है जिसमें काम करनेवाले चपरासियों पर उसका ही रोबदाब चलेगा.चाहे जितना पानी पीए,उन्हें बाजार भेजकर चाहे जितना खाना मंगवाए और जब जी चाहे लघुशंका और दीर्घशंका से भी हो आवे.हाँ,वो अपनी मर्जी से किसी भी भ्रष्टाचारी के विरूद्ध न तो कोई जाँच ही कर सकता है और न ही जाँच शुरू करवा सकता है.बहुत ज्यादा अधिकार दे दिया है इन्होंने लोकपाल को;इतनी अधिक मनमानी करने की अनुमति तो इन्होंने प्रधानमंत्री को भी नहीं दी है;अब और कितना अधिकार चाहिए?सही तो कहा है इन्होंने,वो बेचारा अर्थशास्त्री तो इनसे पूछे बिना पाखाना-पेशाब करने भी नहीं जा पाता है.
               मित्रों,जहाँ तक लोकपाल की नियुक्ति का प्रश्न है तो सोनिया-राहुल जी भला कैसे नियुक्ति समिति में सरकारी बहुमत नहीं रहने दें?कल को अगर कोई अपने पालतू की जगह दूसरा आदमी लोकपाल बन जाता है तो फिर उन्हीं को भीतर कर देगा.आखिर ये लोग भी इन्सान हैं,नेता हैं;इनके हाथों से भी सजा होने लायक गबन-घोटाला हो सकता है और क्या पता कि हो भी चुका हो.ऐसे में ये लोग भला कैसे जेल जाने का जोखिम ले सकते हैं?भला कैसे ये लोग अपने ही गले की नाप का फंदा बना कर अपनी ही गर्दनों में उनके भीतर डाल दें?इसलिए तो लोकपाल को निलंबित करने या हटाने का अधिकार भी इनलोगों ने अपने ही सुरक्षित हाथों में रखा है.
                  मित्रों,इन विश्वासघातियों ने देश को लूटने में पहले से ही आरक्षण दे रखा है और अब इसे रोकनेवाली संस्था में भी आरक्षण दिया जा रहा है जिससे कि उनकी जाति-धर्म के लोगों द्वारा की जानेवाली लूट में बाधा न आने पाए.अब आगे लोकपाल के मुद्दे का और मुद्दे पर क्या होगा कुछ कहा नहीं जा सकता.इस मामले में देश फिर से अप्रैल २०१० में आकर खड़ा हो गया है.अन्ना अनशन तो जरुर करेंगे,शायद सरकार फिर से झुकती हुई नजर भी आएगी और फिर से देश से कोई वादा भी कर देगी लेकिन पूरी हरगिज नहीं करेगी.जनता जिसे लोकतंत्र में वास्तविक मालिक कहा जाता है भविष्य में सशक्त लोकपाल की मांग का भविष्य भी उसी के रूख पर निर्भर करेगा.शायद जनता रूपी कुत्ते के आगे अगले कुछ ही दिनों में खाद्य सुरक्षा गारंटी और अल्पसंख्यक आरक्षण के नाम की रोटी फेंक दी जाएगी और शायद उसके लालच में आकर आकर जनता एक बार फिर कांग्रेस को वोट दे देगी.आपको अपनी बेबकूफी पर कितना यकीन है यह तो आप ही बेहतर जानते होंगे लेकिन सोनिया-राहुल को तो आपकी मूर्खता पर अटूट विश्वास है.तभी तो वे लोकपाल के मामले में अपनी मक्कारी पर इतराते हुए दंभ भर रहे हैं कि पिछले सवा सौ सालों में (इसे अगर संशोधित कर पिछले ६४ सालों में कहा जाए और आजादी के बाद के वर्षों की ही गणना की जाए तो बेहतर होगा) तेरे जैसे लाखों आए,लाखों ने हमको आँख दिखाए,
रहा न नामोनिशान रे अन्ना,
तू क्या कर पाएगा हमारा नुकसान रे अन्ना,
तू क्या कर पाएगा हमारा नुकसान.
वैसे इस पूरे लोकपाल प्रकरण से एक बात तो निश्चित हो ही गयी है कि जनता के लिए सत्ता को बदल देना आसान रहा है और रहेगा भी परन्तु व्यवस्था बदलना आज भी नामुमकिन की हद तक मुश्किल है और आगे भी बना रहेगा.

1 comment:

तेजवानी गिरधर said...

जरूरी नहीं कि हर मांगी हुई चीज मिल ही जाए मेरे दोस्त