सवाल ..........?
क्यों अन्ना हजारे की लोकप्रियता के सामने राजनैतिक नेता बौने लगते हैं?
क्या चुनाव जीतने के लिए जातिवाद का जहर फैलाना सामाजिक अपराध नहीं है ?
क्या मुस्लिम आरक्षण से मुस्लिम बिरादरी का वास्तव में भला हो जाएगा?
क्यों राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को राजनैतिक बिरादरी पचा नहीं पाती है ?
क्यों अखरता है जनसेवकों को ,जब जनता खुद के मंच से अपनी आवाज रखना चाहती है?
कैसा कानून होना चाहिए इस पर आम जनता की भागीदारी क्यों स्वीकार नहीं होती है ,
जबकि उस कानून को आम जनता पर लागू करना होता है?
क्या लोकपाल के अधिकारों पर संदेह जताना लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमारा अविश्वास नहीं
दर्शाता है?
जो नेता अन्ना पर आरोप लगाते हैं क्या वे अपने को अन्ना जितना खरा साबित कर सकते हैं?
क्या जन सेवक नागरिको को आदेश दे इसलिए चुने जाते हैं?
क्या जनहित के मुद्दे को एक दुसरे पर कीचड़ उछाल कर दबा देना देश के हित में है?
यदि कानून बन जाने से कुछ नहीं होगा तो फिर जनलोकपाल को पारित करने में डर कैसा ?
क्या उदारीकरण का रास्ता भारत को सशक्त बना पाया है?
क्या महंगाई के आंकड़े वास्तविकता के निकट हैं और आंकड़े घटने पर वास्तव में गरीब सुखी
हो पाता है?
क्या गरीब और अमीर का बढ़ता आर्थिक असंतुलन हमारी नीतियों पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाता है?
क्या संसद की बहस के सामने जनता की बहस मूल्य रहित है?
क्या चुने हुए नेता ही हर बात पर ज्यादा समझ रखते हैं चाहे वे कम पढ़े-लिखे हो ?
ये कुछ प्रश्न हैं जिनका उत्तर ढूंढ़ नहीं पा रहा हूँ , मदद कीजिये.
क्यों अन्ना हजारे की लोकप्रियता के सामने राजनैतिक नेता बौने लगते हैं?
क्या चुनाव जीतने के लिए जातिवाद का जहर फैलाना सामाजिक अपराध नहीं है ?
क्या मुस्लिम आरक्षण से मुस्लिम बिरादरी का वास्तव में भला हो जाएगा?
क्यों राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को राजनैतिक बिरादरी पचा नहीं पाती है ?
क्यों अखरता है जनसेवकों को ,जब जनता खुद के मंच से अपनी आवाज रखना चाहती है?
कैसा कानून होना चाहिए इस पर आम जनता की भागीदारी क्यों स्वीकार नहीं होती है ,
जबकि उस कानून को आम जनता पर लागू करना होता है?
क्या लोकपाल के अधिकारों पर संदेह जताना लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमारा अविश्वास नहीं
दर्शाता है?
जो नेता अन्ना पर आरोप लगाते हैं क्या वे अपने को अन्ना जितना खरा साबित कर सकते हैं?
क्या जन सेवक नागरिको को आदेश दे इसलिए चुने जाते हैं?
क्या जनहित के मुद्दे को एक दुसरे पर कीचड़ उछाल कर दबा देना देश के हित में है?
यदि कानून बन जाने से कुछ नहीं होगा तो फिर जनलोकपाल को पारित करने में डर कैसा ?
क्या उदारीकरण का रास्ता भारत को सशक्त बना पाया है?
क्या महंगाई के आंकड़े वास्तविकता के निकट हैं और आंकड़े घटने पर वास्तव में गरीब सुखी
हो पाता है?
क्या गरीब और अमीर का बढ़ता आर्थिक असंतुलन हमारी नीतियों पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाता है?
क्या संसद की बहस के सामने जनता की बहस मूल्य रहित है?
क्या चुने हुए नेता ही हर बात पर ज्यादा समझ रखते हैं चाहे वे कम पढ़े-लिखे हो ?
ये कुछ प्रश्न हैं जिनका उत्तर ढूंढ़ नहीं पा रहा हूँ , मदद कीजिये.
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