लोकपाल के मसले पर केंद्र सरकार, विशेषकर कांग्रेस के रवैये को जनता की भावनाओं का निरादर करने वाला मान रहे हैं राजीव सचान
एक साल में तीन धोखे मजबूत लोकपाल के लिए अन्ना का तीसरा अनशन समाप्त हो गया और इसी के साथ उनके आलोचकों को उनके खिलाफ कुछ और कहने को मिल गया। अन्ना के खिलाफ नया कुतर्क यह है कि वह संसद का काम सड़क पर कर रहे हैं। कांगे्रस ने उन पर अधीर होने और संसद का अपमान करने का आरोप भी मढ़ दिया। इसके पहले उन पर गांधीवादी न होने और अनशन का गलत इस्तेमाल करने का आरोप भी लगाया जा चुका है, लेकिन किसी और यहां तक कि सरकार के पास भी इस सवाल का जवाब नहीं है कि उन्हें बार-बार अनशन-आंदोलन करने का मौका क्यों दिया जा रहा है? सरकार ने जब पहली बार लोकपाल विधेयक लाने का फैसला किया था तो उसका मसौदा इतना लचर बनाया था कि किसी ने उसका समर्थन नहीं किया। दरअसल इस मसौदे के जरिये देश को इस साल पहली बार धोखा दिया गया। इस धोखे के कारण ही अन्ना ने अप्रैल में जंतर-मंतर पर धरना दिया। इस धरने के चलते सरकार ने अन्ना की टीम के साथ मिलकर लोकपाल का मसौदा तैयार करने का निर्णय लिया, लेकिन यह कोशिश नाकाम रही और आखिरकार सरकार ने कहा कि वह नए सिरे से लोकपाल का मसौदा खुद तैयार करेगी। उसने ऐसा ही किया, लेकिन यह इस साल देश को दिया जाने वाला दूसरा धोखा था। संसद में कमजोर लोकपाल विधेयक पेश करने के बाद उसे विधि एवं कार्मिक मंत्रालय की स्थायी समिति को सौंप दिया गया। इस विधेयक के प्रावधान और सरकार के इरादे यह बता रहे थे कि मजबूत लोकपाल बनने के आसार नहीं हैं। परिणामस्वरूप अन्ना दूसरी बार अनशन पर बैठे। पहले सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया और फिर जन दबाव के आगे झुकते हुए उन्हें अनशन के लिए मनपसंद जगह-रामलीला मैदान देने को विवश हुई। करीब एक हफ्ते तक अन्ना के अनशन की उपेक्षा करती रही सरकार को जब यह अहसास हुआ कि इससे बात नहीं बनेगी तो वह उनकी तीन मांगों पर संसद में चर्चा कराने के लिए तैयार हुई। इस चर्चा के दौरान बनी सहमति को संसद की भावना का नाम देकर उसे स्थायी समिति को भेज दिया गया। देश ने समझा कि उसकी जीत हुई, लेकिन अन्ना ने यह बिलकुल ठीक कहा था कि अभी आधी जीत हुई है। संसदीय समिति की मानें तो संसद की भावना वह नहीं थी जो देश ने समझा था। उसका यह भी दावा है कि उसने कम समय में बेहतर काम कर दिखाया है। उसे यह कहने में भी संकोच नहीं कि उसका काम किसी को और विशेष रूप से टीम अन्ना को खुश करना नहीं था। उसने किसी को खुश न करने का काम इतने अच्छे ढंग से किया कि विभिन्न मुद्दों पर तीन कांगे्रसी सदस्यों समेत अधिकांश सदस्यों ने उससे असहमति जताई। यह देश को दिया जाने वाला तीसरा धोखा था। यह भांपकर कि मजबूत लोकपाल अभी भी बनने नहीं जा रहा, अन्ना ने एक बार फिर अनशन किया। इस बार उनके मंच पर अनेक विपक्षी नेता भी आए, लेकिन सरकार ने उन्हें कोई भाव नहीं दिया। उलटे इस तरह के आरोप लगाए कि टीम अन्ना के सदस्य अपनी ही चलाने की कोशिश कर रही है और इस कोशिश में संसद को अपमानित भी कर रहे हैं। बावजूद इन आरोपों के सरकार यह संकेत भी दे रही है कि कहीं कुछ गलत हुआ है। उसकी ओर से न केवल सर्वदलीय बैठक बुलाई गई है, बल्कि यह भी कहा जा रहा है कि संसदीय समिति का फैसला अंतिम नहीं। फिलहाल कोई नहीं जानता कि लोकपाल विधेयक का क्या होगा, लेकिन यह स्पष्ट है कि जिस जनता ने कांग्रेस को शासन का अधिकार दिया है वह उसकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए तैयार नहीं। इसके लिए तरह-तरह के बहाने बनाए जा रहे हैं। जैसे, अभी यह कहा जा रहा है कि कानून संसद में बनते हैं, सड़क पर नहीं वैसे ही पहले यह कहा जाता रहा है कि कानून बनाना नेताओं का काम है और यदि आपको नेताओं का काम पसंद नहीं तो चुनाव लडि़ए और बहुमत हासिल कर मनपसंद कानून बनाइए। इसके बाद अन्ना और उनके साथियों को लक्षि्यत कर कहा गया, अपना आचरण सुधारिए। अन्ना पर गांधीवादी न होने की तोहमत मढ़ने और उनकी भाषा पर एतराज जताने का काम तो न जाने कितनी बार किया गया है। यदि एक क्षण के लिए यह मान लिया जाए कि अन्ना, उनकी टीम और उनके अनशन-आंदोलन में जुटने वाले लोग गांधीवादी नहीं और उनका आचरण भी पाक-साफ नहीं तो क्या इसके आधार पर सरकार एक प्रभावी कानून बनाने से इंकार कर देगी? क्या मजबूत लोकपाल कानून तब बनेगा जब टीम अन्ना और उनके समर्थक मनसा-वाचा-कर्मणा गांधीवादी हो जाएंगे? यदि कल को अन्ना यह कह दें या फिर कोई इसे साबित कर दे कि वह गांधीवादी नहीं तो क्या उन्हें मजबूत लोकपाल की मांग करने का अधिकार नहीं रह जाएगा? यदि देश गांधीवादी हो जाए तो लोकपाल की जरूरत ही क्यों रहेगी? अगर जनता को संसदीय परंपराओं का ज्ञान नहीं तो क्या उसे एक मजबूत लोकपाल कानून से वंचित रखा जाएगा? क्या अन्ना और उनके साथी-समर्थक अलग राज्य या देश की मांग कर रहे हैं? वे तो वही मांग रहे हैं जिसका वायदा पिछले 43 साल में करीब-करीब हर सरकार ने किया है। आखिर सरकार में इतना अहंकार क्यों? क्या वह स्वर्ग से उतरी है अथवा किसी और देश की जनता ने उसे चुना है? यदि लोकतंत्र में जनता की इच्छा सर्वोपरि है जैसा कि सभी कहते हैं तो फिर उसकी इच्छा के अनुरूप काम न करने के लिए इतने जतन क्यों किए जा रहे हैं? आखिर एक साल में एक ही मुद्दे पर तीन बार धोखा देने वाली सरकार किस मुंह से अपने इरादों को नेक बता रही है? (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
18.12.11
एक साल में तीन धोखे
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