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20.12.11

आह दिल्ली वाह दिल्ली-ब्रज की दुनिया

मित्रों,वर्ष २००२ के १२ सितम्बर से पहले मैंने दिल्ली को केवल सुना था देखा नहीं था.मैंने दिल्ली को सुना था अपने से उम्र में बड़े मामा लोगों के मुंह से और अपने उन हमउम्र दोस्तों की जुबानी जो तब कमाने के लिए दिल्ली में रहने लगे थे.कोई हमें मकान मालिक या पड़ोसी की बेटी से अपने अवैध मुहब्बत की दास्तान सुनाता तो कोई बताता कि दिल्ली में कैसे पैसा कमाया जाता है तो कोई वीर रस के मूर्धन्य कवियों को कई प्रकाशवर्ष पीछे छोड़ते हुए बताता कि उसने बिहारी कहने पर कैसे किसी स्थानीय व्यक्ति की पिटाई कर दी.कुल मिलाकर मुझे लगने लगा कि दिल्ली के लोग बिहारियों से बहुत डरते हैं.लेकिन जब मैंने १२ सितम्बर,२००२ को दिल्ली की धरती पर अपने कदम रखे तो पाया कि वे सबके सब झूठ बोल रहे थे.
               मित्रों,इससे पहले ११ सितम्बर को महनार से मेरी विदाई की गयी आरती उतारकर और ललाट पर विजय तिलक लगाकर;मैं आईएएस बनने का सपना आखों में लेकर जो रवाना हो रहा था.इस अवसर पर मेरी मकान मालकिन ने मुझसे मजाक करते हुए कहा भी कि तुम दिल्ली जाकर बदल जाओगे और शायद वापस आओ तो एक से भले दो होकर.तब मैंने भी अपने स्वभावानुरूप जवाब जड़ दिया था कि मैं दिल्ली बदल जाने के लिए नहीं जा रहा हूँ बल्कि दिल्ली को ही बदल देने के लिए जा रहा हूँ.परन्तु अंत में न तो मेरा दावा ही सत्य सिद्ध हुआ और न ही उनकी आशंका ही सच्चाई के धरातल पर उतर पाई.
           मित्रों,नई दिल्ली जंक्शन पर उतरकर हमारा सबसे पहले सामना हुआ रिक्शेवाले से जिसने कुल बीस कदम दूर बस स्टॉप तक हमारा सामान ले चलने के लिए हमसे २० रूपये ऐंठ लिए.तब देश में वाजपेयी की सरकार थी और बीस रूपया बहुत हुआ करता था.जब हम खानपुर में बस से उतरे तो झमाझम वर्षा हो रही थी और सड़क पर रिक्शेवाले नजर भी नहीं आ रहे थे.बाद में मैंने जाना कि वहां रिक्शा चलाने पर प्रतिबन्ध लगा हुआ था.किसी तरह एक ऑटो रिजर्व करके हम गंतव्य मकान तक यानि सुरेश के निवास पर पहुंचे.सुरेश मेरे बड़े जीजाजी के मित्र थे,ग्रामीण भी थे और भतीजे भी.फिर शुरू हुई ढंग का डेरा खोजने के लिए भागदौड़.तब मैंने एक अच्छी बात यह देखी कि सभी प्राइवेट बसों पर लिखा हुआ रहता था कि कौन-सी बस किस-किस इलाके से होकर गुजरेगी.लेकिन मेरे बड़े जीजाजी को न जाने क्यों उन पर लिखे पर विश्वास ही नहीं था.वे बिना पूछे बसों में चढ़ते ही नहीं थे.इसी दौरान एक बार हम किंग्जवे कैंप से खानपुर के लिए लौट रहे थे.जिस बस में हम चढ़े वो केवल सराय काले खान तक के लिए थी.उतरने के बाद अँधेरा हो जाने के कारण सुरेश और जीजाजी की समझ में ही नहीं आ रहा था कि खानपुर की बस सड़क के इस पार से मिलेगी या उस पार से.फिर उन्होंने मेरे मना करने पर भी सड़क पार की और एक बस में जिस पर खानपुर लिखा हुआ था सवार हो गए.कंडक्टर से खानपुर का तीन टिकट माँगा तो उसने बिना कुछ कहे-सुने १०-१० के तीन टिकट थमा दिए.बस के थोड़ी दूर चलने के बाद ही मुझे लगा कि बस तो यमुना पार जा रही है.फिर हमने बस रूकवाई और पैसे वापस मांगे लेकिन उस कंडक्टर ने बड़ी बेहयाई से हमारी अज्ञानता की हँसी उड़ाते हुए यह कहकर पैसे लौटाने से मना कर दिया कि हमने तो नहीं कहा था तुमको बस में चढ़ने के लिए.तब हमें अपने बिहार की भी याद आई क्योंकि बिहार में छोटे बच्चे को भी आप कहने का रिवाज है.लेकिन दिल्ली तो जैसे आप कहना जानती ही नहीं थी,बाप को भी तुम और बेटे को भी तुम.इसी दौरान मैंने एक और अजीब बात जिंदगी में पहली बार देखी वो यह कि दिल्ली में पैसा लेकर पानी पिलाया जाता था.
          मित्रों,करीब एक सप्ताह तक बसों में जमकर ठगाने के बाद डेरे का इंतजाम भी हो गया.ठगाने की बात मैंने इसलिए कही क्योंकि हमें तब यह पता नहीं था कि जहाँ हमें जाना है वह जगह वहां से कितनी दूर है और वहां का किराया कितना है.कंडक्टर हमारे बातचीत करने के लहजे से ही समझ जाता था कि कबूतर इस शहर के लिए नया है.फिर तो उसको जितने का जी में आता उतने का टिकट काट देता.हमारा डेरा ठीक किया था त्रिभुवन ने जो इन दिनों आई.आई.एम. इंदौर में पढ़ रहा है.वो उन दिनों किरोड़ीमल कॉलेज में मेरे दूर के भांजे उमाशंकर का जूनियर हुआ करता था.जब हम चार-पाँच दिन रह लिए तब एक लफुआनुमा युवक मोटा चश्मा लगाकर प्रकट हुआ और हमसे हमारा परिचय पूछने लगा.उसके साथ भाड़ा तय हुआ १७०० रू. लेकिन उसने हमसे २२०० रूपये मांगे जो मैंने देने से ही मना कर दिया.तब भी मेरी नजर दलाली लेना और देना दोनों अनैतिक थे.फिर उसने कहा कि अगर मकान मालिक या मकान मालिक का कोई आदमी तुमसे यह पूछे कि तुम इस कमरे में कबसे रह रहे हो तो तुम उसी दिन से बता देना जिस दिन तुमसे पूछ जाए.लेकिन महीनों तक कोई नहीं आया और इस तरह वह व्यक्ति कई महीने का किराया अपनी जेब में डालता रहा.वह एक कथित प्रोपर्टी डीलर था.इससे पहले मैंने कभी इस जीव का नाम सुना भी नहीं था अलबत्ता दलाल तो मेरे गाँव और शहर में भी थे.वह प्रोपर्टी डीलर जिसका नाम मुकेश था और जो विवाहित भी था लौज में एक कमरे को हमेशा खाली रखता था.कभी-कभी सप्ताह में एक बार तो कभी-कभी दो बार वो लड़की लाता.फिर वे और उसके पाँच-छः दोस्त बारी-बारी उसके साथ उस कोनेवाले ९ नंबर के कमरे में सेक्स करते.कई बार तो लड़की नवविवाहिता भी होती.मुझे छात्रों ने बताया कि दिल्ली में सहपाठी लड़कियों को फँसाना बड़ा आसान था.बस एक बाईक खरीद लो लडकियाँ खुद ही फँस जाएंगी.मेरा भांजा उमा भी न जाने कैसे प्रेम में गिर गया और अपने ही मकान मालिक की बेटी को साथ में लेकर गाँव पहुँच गया.कुछ यही हाल मेरे लॉज के अन्य दोस्तों का भी था.सबके सब जोड़ियाँ बना चुके थे.तन्हा था तो सिर्फ मैं.एक बात और दिल्ली की लड़कियों के लिए लड़कों के साथ दोस्ती या सेक्स सिर्फ पार्टटाइम जॉब की तरह था.अगर लड़के ने इसे फुलटाईमर बनाने की यानि शादी करने की कोशिश की तो ज्यादा सम्भावना यही होती थी कि दोस्ती ही टूट जाए.
           मित्रों,इस तरह मेरे दिन मजे में बीतने लगे.मेरी हमेशा से एक आदत रही है कि मैं सबेरे सोता हूँ और सबेरे जगता भी हूँ.कुछ दिनों तक तो सबकुछ सामान्य रहा लेकिन एक दिन ज्यों ही मैंने बल्ब ऑफ़ किया पड़ोस के कमरे से हास्यमिश्रित स्वर में आवाज आने लगी कि अब हम समझे कि बिहार क्यों पिछड़ा हुआ है.व्यंग्य करने वाला बंगाली था और नाम था स्वरुप दत्ता.तबसे मैंने बल्ब ऑफ़ करना ही छोड़ दिया और जलता हुआ छोड़कर ही मुँह ढककर सोने लगा.इसके बाद भी कई बार सड़कों पर,बसों में मुझे बिहारी कहकर संबोधित किया गया.कभी चुपचाप अपमान के घूँट पीकर रह जाता तो कई बार मारपीट की नौबत भी आ जाती.इसी कारण किंग्जवे कैम्प चौक पर एक किराना दुकानदार से हाथापाई भी कर ली और उसे पीटा भी.जब मुझे कमलानगर,९जी में रहते हुए कई महीने हो गए तब एक दिन विनय जो मेरे ही जिले का रहनेवाला था और त्रिभुवन अपने कॉलेज किरोड़ीमल से एक कागज पर ब्रजकिशोर सिंह,फ्यूचर आई.ए.एस. प्रिंट करके ले आए और उसे मेरी किवाड़ पर चिपका दिया.हो सकता है कि मेरी नाकामियों पर आंसू बहाता हुआ वह पोस्टर अब भी उस किवाड़ पर चिपका हुआ हो.

          मित्रों,फिर मैंने बाराखम्बा रोड स्थित राउज आई.ए.एस. स्टडी सर्किल में नामांकन करवाया और बड़े ही जतन से अपने सपनों में हकीकत के रंग भरने लगा.यहाँ भी गैर बिहारी छात्र-छात्राएं हम बिहारियों को हिकारत भरी निगाहों से देखते.शायद यही वो कारण था जिसके चलते मैंने जमकर मेहनत की.मैं एक मिनट भी जाया नहीं करता था.आते-जाते बसों में भी नोट्स देखता रहता.इसी बीच कोचिंग में टेस्ट होना शुरू हो गया.इतिहास के पहले टेस्ट में मुझे ५० में ३७ अंक आए थे लेकिन दूसरे टेस्ट में तो कमाल ही हो गया.बतौर शिक्षक ओमेन्द्र सिंह मेरे सिर्फ पांच उत्तर ही गलत थे.मैं टेस्ट में प्रथम आया था.उस दिन मेरी कक्षा के बिहारी छात्रों की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था.सबने मुझे अपने कन्धों पर उठा लिया.बाद में भी यह सिलसिला बना रहा.सामान्य अध्ययन के टेस्ट में भी मैं एक नए रिकार्ड बनाता हुआ प्रथम आया.मेरे प्रथम होने की घोषणा खान सर ने कुछ इस तरह से की-प्रथम आए हैं ब्रह्मकिशोर सिंह.मैंने फिर हस्तक्षेप करके अपना नाम सुधरवाया.बाद में साथ में पढनेवाले यूपी और राजस्थान वालों से हमारा पंगा भी हुआ.उनलोगों को मेरा यानि एक बिहारी का प्रथम आना रास जो नहीं आ रहा था.वे मेरे अभिन्न मित्र बन चुके अविनाश उर्फ़ मराठा (यह नाम उसे कोचिंग में भी हमने दिया था) पर मुझसे दोस्ती तोड़ने के लिए दबाव बनाने लगे लेकिन खुदा के फजल से हमारी दोस्ती आज भी कायम है.कोचिंग के अंतिम दिन हम सबकी आँखों में आंसू थे.मराठा तब तक हमारे साथ पढनेवाली एक लड़की से अपना दिल तोड़वाकर महाराष्ट्र वापस जा चुका था.कोंचिंग ने मुझे कई अच्छे मित्र दिए जिनमें से कुछ तो दिल्ली के भी थे.दिल्ली वासी मनीष,अमित और प्रवीण तब तक मेरे गहरे दोस्त बन चुके थे.मनीष जनकपुरी का जाट था और अमित शर्मा और प्रवीण धीमान मौजपुर में रहते थे.तीनों मस्तमौला थे और दोस्तों के लिए कुछ भी कर गुजरनेवाले भी.
           मित्रों,इसी बीच मेरी दूध विक्रेता संजीव विश्नोई से भी गहरी छनने लगी.संजीव एक हाजिर जवाब तो थे ही बड़े ही सुरीले कलाकार भी थे.चूंकि मैं उनसे शुद्ध हिंदी में बात करता था इसलिए महीनों बाद उन्हें पता चला कि मैं एक बिहारी हूँ वो भी तब जब मैंने एक दिन अपने घर पर उनके एस.टी.डी. फोन से बात की.मुझे कई बार उनके और उनकी पत्नी के बीच घरेलू विवाद को सुलझाने का सुअवसर भी मिला.बाद में उन्होंने मुझे अपने द्वारा गाए गए भजनों के कई कैसेट भी दिए.उनकी डी.एम.एस. की दुकान थी.कोई जब उनसे पूछने आता कि क्या यह मदर डेयरी है तो वे बड़े ही नाटकीय तरीके से उत्तर देते कि यह फादर डेयरी है मदर डेयरी तो बगल में है और फिर एक साथ कई ठहाके फिंजाओं में गूंजने लगते.साथ ही कमलानगर में अख़बारों की एजेंसी चलानेवाले बिल्ले और जैन साहब से भी मेरी गहरी मित्रता हो गयी.मल्कागंज वासी अख़बार वेंडर धर्म सिंह तो जैसे मेरे परिवार के सदस्य ही हो गए.यही हाल डाकिया विजय का भी था.
           मित्रों,वर्ष २००३ की दिवाली के समय मेरी यूपीएससी की प्रधान परीक्षा चल रही थी.सिर्फ अंतिम दो पेपर बाँकी थे कि मुझे डेंगू हो गया.रात में सोया तो अपने ही कमरे में लेकिन जब जगा तो अस्पताल में और वो भी चार दिनों के बाद.मेरे साथ लॉज में रहनेवाले विद्यार्थियों ने मुझे अस्पताल में भरती करवाया फिर मेरे मंझले जीजाजी के फुफेरे भाई अजय को सूचित किया.जान तो बच गयी लेकिन आईएएस बनने का सपना टूट चुका था.आँखों में सपने के टूटे हुए किरमिचों के चुभने का दर्द था.वहां उपस्थित मेरे सभी शुभचिंतकों की आँखें भरी हुई थीं.एक तरफ उन्हें मेरे जीवित बच जाने की ख़ुशी हो रही थी तो उनके मन में मेरे सपने के टूटने का अहसास भी था.मैं पहला मोर्चा जीतकर अंतिम लड़ाई को हार गया था.दरअसल डेंगू ने मेरे दिमाग पर भी बुरा असर डाला था.अब मैं पढ़ी हुई बात को ज्यादा समय तक याद नहीं रख पाता था.बाद में पड़ोसी से परेशान होकर डेरा बदला.यह नया पड़ोसी अभय दूबे जो गोरखपुर का था रात में तेज आवाज में गाना सुनता था जिससे मैं सो नहीं पाता था.अभय ने अपनी मोटर साईकिल घर भेज दिया और चोरी की एफ.आई.आर. दर्ज करवा कर बीमा का पैसा खा गया.वो अपने कमरे में लड़कियां लाता और कभी-कभी रात में उनके साथ हमबिस्तर भी होता.हमने उसे रात में गाना नहीं बजाने के लिए कई बार समझाया लेकिन वो नहीं समझा.अंत में मारपीट हुई जिसमें मेरे मित्र मनोज,एल.एल.बी. को चोट भी आई और फिर हमने आशियाना बदल दिया.अब हम आ गाए घंटाघर के पास.सारा सामान रिक्शा पर उमा और उसके मित्रों ने ढो दिया था.यहाँ मेरे साथ रहने के लिए मराठा भी आया लेकिन एक ही महीने बाद अलग भाग गया जिससे आगे २ सालों तक मुझे अकेले फ़्लैट का किराया ३५०० रू. मासिक भरना पड़ गया.यहाँ आकर मकान मालिक पी.के. अग्रवाल से दोस्ती हुई और दोस्ती हुई उनके स्टाफ पंकज से.घंटों मैं उनलोगों से बातचीत करता रहता.पंकज बहुत ही दिलचस्प इन्सान था.उसकी अंग्रेजी अच्छी थी.जब भी उसके घर पर कुम्हरे की सब्जी बनती तो वो जरुर इसका जिक्र मुझसे करता वह भी सीना तानकर यह कहते हुए कि आज मैंने सीताफल की सब्जी खाई है.साथ ही जब एक दिन उसने मुझे बताया कि वो कभी जिभिया (स्टील की या प्लास्टिक की पत्ती से जीभ साफ़ करना) नहीं करता है तब मुझे घोर आश्चर्य हुआ.उसने यह भी बताया कि यहाँ पर सभी नाख़ून से ही खखोरकर जीभ साफ़ कर लिया करते हैं.यहाँ तक कि मैंने भी बाद में पाया कि जिभिया वहां की दुकानों में बिकता ही नहीं था.जहाँ तक अग्रवाल साहब का सवाल है तो वे ऊंचे दर्जे के फेंकू और कंजूस थे.दुकान में बातें करते-करते सो जाना और ग्राहकों से जबरन बात करने की कोशिश करना उनका शगल था.वे बड़े ही नाटकीयतापूर्ण तरीके से बताते कि मैं जब ब्रजकिशोर सिंह,आई.ए.एस. यानि मेरे चेंबर में मुझसे मिलने जाएँगे तो किस तरह दरवाजे को लात से मारकर खोलेंगे.
           मित्रों,मेरे बगल में एक बूढी आंटी भी रहती थी चंद्रावल रोड,१५२९ में.उन्होंने मुझे परदेश में माँ का प्यार दिया.अगाध स्नेह था उनका मुझपर.जब भी मैं उनके पास होता तो मुझ पर मानो प्रेम की बरसात होती रहती.मुझसे भी जहाँ तक बना मैंने उनकी सेवा की.वे अपने एक गूंगे बेटे और पति के साथ वहां रहती थीं.छोटे बेटे की ज्वेलरी की घंटाघर के पास ही बहुत बड़ी दुकान थी मगर वो इन लोगों से अलग अशोक विहार में फ़्लैट खरीदकर रहता था.अंत में २००५ की यू.पी.एस.सी. प्रधान परीक्षा में भी असफल घोषित कर दिए जाने के बाद मैंने नोएडा स्थित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में नामांकन करवा लिया और दिल्ली को हमेशा के लिए छोड़ दिया.एक महीने तक तो नोएडा से आना-जाना किया लेकिन इसमें समय की बहुत बर्बादी होती थी.इसलिए नोएडा के सेक्टर २० में ही जहाँ उस समय विश्वविद्यालय का नोएडा परिसर अवस्थित था डेरा ले लिया.मुँह अँधेरे ही सामान को ट्रक पर लदवाया.उस दिन शायद २ अगस्त की तारीख थी.अब दिल्ली हमेशा के लिए मुझसे छूट जानेवाली थी.मैंने चलते वक़्त आंटी को प्रणाम किया और ट्रक में जाकर बैठ गया.आंटी फूट-फूटकर रो रही थीं.तब तक अंकल राजाराम पुरी भी दुनिया को अलविदा कर चुके थे.मैंने अपना सामान ट्रक पर लोड करवाया और चल पड़ा.वे दूर तक जाते हुए ट्रक को देखती रहीं और रोती रहीं.बाद में जब भी दिल्ली आता तो सिर्फ उनसे मिलने के लिए.फिर यह सिलसिला कम होता गया और अंत में बंद भी हो गया.अभी पिछले साल यहाँ हाजीपुर से फोन करने पर उनके छोटे बेटे ने बताया कि उसका गूंगा भाई भी अब इस दुनिया में नहीं है.दुर्भाग्यवश उसका नंबर भी बदल गया है जिससे मैं अब यह जान पाने में असमर्थ हूँ कि आंटी जीवित भी हैं या नहीं और अगर जीवित हैं तो कहाँ पर हैं और किस हाल में हैं.

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