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7.6.11

ये भी सोचिये ..........................................????

ग्वालियर में चिटफण्ड का कारोबार करने वाले लोगों पर प्रशासन के द्वारा शिकंजा कसा जा रहा? यह सही है कि जो भी कदम उठाया गया है, वह कुछ हद तक तो गलत नहीं कहा जा सकता है? लेकिन कुछ सवाल तो इस प्रशासनिक कार्यवाही से उभरते ही है, और जिस तरह कार्यवाही की जा रही है, वह न्याय संगत कैसे कहीं जा सकती है?
मसलन जिस चिटफण्ड कम्पनियों के नाम प्रशासन ने होर्डिग पर लटका दिया है, जिससे अचानक भीड़ उमड़ी और कहा गया कि धोखा दिया जा रहा है, (एक अनुमान है कि चिटफण्ड का कारोबार 1950 से जारी है) इसमें शामिल कुछ कम्पनियां कमतर तो कुछ बीस वर्षो से कार्यरत है, उनका पिछला लेखा-जोखा क्यूं नहीं देखा गया? कि उन्होंने कब-कब किसके साथ धोखा किया है? यथार्थ के धरातल पर चल रही और तमाम सालों में से जिन कम्पनियों के खाते सील और कुर्क किये जा रहे है, वह कम्पनी रातों-रात जनाब कैसे भाग सकती है? हां... यह कार्यवाही तो उन कम्पनियों पर होनी चाहिये थी, जो पैसा लेकर न तो कहीं किसी प्रोजेक्ट में लगा रही थी, और न ही वह अपनी कम्पनी के नाम चल-अचल सम्पत्ति बना रही थी? ऐसे में वह तो भागेगी ही, यह नियत तो साफ होती है, लेकिन जिनकी चल-अचल सम्पत्ति है, तमाम कारोबार है और नाम का गुडविल भी बन चला है उसका, तब ऐसे में यह कैसे मान लिया जाये कि यह कम्पनियां भाग जायेगी, शायद ऐसा सोच लेना गलत ही होगा? वैसे जनाव जिस तरह चिटफण्ड का कारोबार करने वाले कम्पनियों के होर्डिंग लगे है, उदाहरणार्थ कभी भूले से शहर के राष्ट्रीयकृत बैंक के नाम भुगतान में देरी की मामूली सी बात ही लिख कर लिस्ट ऐसे ही चस्पा कर दीजियेगा, देखियेगा पूरा शहर उमड़ आयेगा, धोखा-धड़ी की शिकायत लेकर, खौफ और असमंजस तो इस कदर हावी हो जायेगा कि कुछ बैंकों की इमारत बाबरी मस्जिद हो उठेगी? मतलब उसकी ईंट और फर्नीचर भी नहीं मिलेगें ढूढऩे से? दूसरी बात प्रतिद्वंदी कम्पनियों की क्रिया पर प्रतिक्रिया के आसरे जिस तरह शहर में बेरोजगारी को फैलाने और अपने कर्मचारी पर दबाव की प्रक्रिया अपनायी गयी वह सोची समझी साजिश कही जा सकती है, कुछ कम्पनियां जिनका अस्तित्व मात्र कागज पर ही है, वह कागज के आसरे ही नोट बटोर कर तो फरार हो सकती है? लेकिन जिन्होंने चिटफण्ड का पैसा कारोबार में लगा कर उसे जमाया है, चल-अचल सम्पत्ति में निवेशकों का पैसा लगाया है, और व्यापार किया है, ऐसे में उनका फरार हो जाना समझ से परे है? निवेशकों का हूजूम जिस तरह उमड़ा है, कभी पूछियेगा आम आदमी से कि घर में मासिक वेतन के आसरे चुकाये जाने वाले घरेलू कर्जे के कर्जदार एक साथ आ धमकते है तो क्या हालत होती है, ऐसे में एक साथ इतने निवेशक आ जाये तो कार्यवाही में समय तो शायद लगेगा ही जो उन्हें मिलना चाहिये?
जब शहर में बांटे जा रहे पीले पानी के दौर में, पानी बचाने का अभियान चलाकर एज्यूमेंटपार्क में साफ पानी बर्बाद हो रहा हो, या किया जा रहा हो अपनी मनमानी से मनोरंजन के नाम पर? तब ऐसे में विश्वास के योग्य, काम कर रही कुछ कम्पनियों पर कार्यवाही करने का उलाहना देना कहां न्याय या तर्क संगतकहा जा सकता है?
निवेशकों को जिस धोखे से बचाने की जिद् में प्रशासन अड़ा है, उसी प्रशासन के आंगन में निवेशकों का शोषण शुरू हो चला है, फार्म छप गये है, 50 पैसे के कागज का टुकड़ा दस से बीस रूपये में खुलेआम बेचा जा रहा है, जी जनाब बात यही तक आकर रुक जाती तो ठीक था। अपुष्ट कुछ शिकायतें ऐसी भी सुनने में आयी है कि प्रतिद्वंदी कम्पनियों ने जानबूझ कर करवायी हैं, भ्रमित निवेशकों को उसकी ब्याज रहित कुल जमा राशि का कुछ अंश देकर, कागज और आवेदन लेकर शिकायत की गयी हैं, जिससे शिकायती आंकड़ा तो बढ़ा ही साथ ही प्रशासन पर दबाव भी? प्रशासन को ऐसे तमाम शिकायतों को भी संज्ञान में लेना चाहिये। प्रशासन जिस तरह नेकनियति और दरियादिली दिखला रहा है वह इसी तरह उन लोगों के प्रति भी दिखलाये जो जीवन के अंतिम समय में पेंशन की उम्मीद के आसरे साहब के चौखट पर बेहोश हो जाता है? यही दरियादिली उनके भी नसीब में आये जो अपनी उम्मीद के पुर्जे पर कार्यवाही की आस में चप्पलें घिस देता है? और कार्यवाही का झुनझुना एक टेबिल से दूसरे टेबिल तक कूंदता-फांदता ही रह जाता है?
प्रशासन को चाहिये कि ऐसे में वह वृहद्स्तर पर संचालित कम्पनियों (जिनकी चल-अचल संपत्ति हो) ज्ञात-अज्ञात संपत्ति के बारे कार्याही करते हुये कम्पनियों के प्रमुख से लिखित में सम्पत्ति खुर्द-बुर्द न करने, न दान में देने या कूटरचित तरीके से इसे अन्य किसी भी तरीके से किसी को बेचने या देने का शपथ पत्र लेकर कम्पनियों को उनके चिटफंड के कारोबार पर लगे प्रतिबंध को जारी रखने के अतिरिक्त अन्य कारोबार को करने की अनुमति दिया जाना चाहिये, वैैश्विक मंदी के दौर में हुये तमाम बेरोजगार को मिला हुआ रोजगार छीन लेना उचित नहीं कहा जा सकता है?
माननीय जिलाधीश महोदय श्री आकाश त्रिपाठी जी से मेरा निवेदन है कि वह इन कम्पनियों को अपनी कार्यवाही की जद में तो रखें, लेकिन आपके अधीन तमाम विभागों से अनुमति लेकर कई कारोबार करने वाली कम्पनियों को कार्य करने का अवसर प्रदान कर दें। ताकि निवेशक का पैसा भी लौटे और उसका विश्वास भी लेकिन जो कम्पनियां सिर्फ कागजों पर चल रही है, और फरार है, उनके विरूद्ध अवश्य ही मात्र कागजी कार्यवाही करने के बजाये ठोस धरातल पर कार्यवाही की जाये? देखा गया है कि कई विभाग माल जब्त कर सुपुदर्गी में दे जाते है, की जा रही कार्यवाही किसी नतीजे पर पहुंचने तक, ऐसा ही विचार आप बना लें तो निवेशक का धैर्य नहीं टूटेगा, और किसी का रोजगार (जो निवेशक के पैसे से संचालित हो रहा है) नहीं छूटेगा? अगर ऐसा न हो पाया तो न जाने शहर में कितने अपराध यह बेरोजगारी जन्म देगी, उसे भी रोकने का दायित्व और कत्र्तव्य आप के पद का ही है?
सो कुछ ऐसा रास्ता निकालिये कि दोषी पर कार्यवाही भी हो और गैर-बैंकिंग वाले कारोबार भी संचालित होते रहे?

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