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16.5.11

‘‘एक लम्हे की प्रेम कहानी’’


‘‘एक लम्हे की प्रेम कहानी’’

वो एक लम्हा, उसकी वो एक नज़र और उस क्षण का वो तूफान जिसने जिन्दगी के मायने ही बदल दिये। मैं कभी उस दिन को नहीं भूल पाऊगाँ। मेरी जिन्दगी का वो एक पन्ना जिस पर दर्द की कलम से मेरी प्रेम कहानी अनजाने में ही चित्रित हो गई।
जी हाँ, मेरी प्रेम कहानी। ये प्रेम कहानी कुछ लम्हों की है पर इसका अहसास मानों सदियों पुराना हो। इस कहानी में दर्द प्रेम से ज्यादा व्याप्त है, ऐसा कहकर शायद अपने इस अमर प्रेम को मैं गाली दे जाऊँ। क्योंकि प्रेम का समय से कोई सम्बन्ध नहींे होता। शायद आपको विश्वास न हो। पर मुझे यकीन है मेरी कहानी जानकर आप न केवल इस बात पर विश्वास करेंगें बल्कि इसका यकींे आपके रोम-रोम में बस जायेगा और प्यार के लिए आपकी धारणा बदल जायेगी।
यह एक ऐसी निश्चछल प्रेम कथा है जो प्यार के ज़ज्बातोें को अमरत्व की माला में पिरोती है।
ये कहानी शुरू होती है कोहलापुर में भड़क रहे दंगों से। कोहलापुर के हालात बद से बदत्तर हो गये थे। चारों ओर एक ऐसा अजीब सा सन्नाटा था जो चीख-चीखकर वहाँ के लोगों की मौत के दर्द को गा रहा था। लोगों के अन्दर डर का ऐसा आतंक था कि कोयल की आवाज भी उन्हें कर्कश और आतंकित करने वाली प्रतीत हो रही थी। बच्चे जिनका नन्हा बचपन सड़क, पार्क आदि में खेलकर गुजरता था, वो आज घर की चार दीवारी में कैद सिसकियाँ ले रहे थे। लोगों के आतंकित चेहरों पर पड़ी सिकुड़न उनके हर पल मौत के खौफ को बयाँ कर रही थी। लोग समझ नहीं पा रहे थे कि वे जी-जी कर मर रहे हैं या मर-मर कर जी रहे हैं। ओह! कितना घुटन भरा वातावरण था वो सब। जिन्दगी नरक सी लगने लगी थी।
असल में ये दंगा प्रत्येक समुदाय के लोग शहर में शान्ति व्यवस्था के बिगड़ते हालातों के खिलाफ कर रहे थे। लोगों में असंतोष था कि क्यों उनके शहर की शान्ति व्यवस्था की हालत इतनी दरिद्र्र है? पर कोई उन्हें यह कैसे समझाये कि सुख-शान्ति, चैन-आराम के अर्थ जिस दिन वे समझ जायेंगें, सबसे पहले ये दंगे समाप्त हो जायेंगें।
ये लोगों की संकीर्ण मानसिकता नहीं तो और क्या है कि वे जिस चीज के लिए लड़ रहे हैं, सबसे पहले उसी का तिरस्कार कर रहे है।
यही तिरस्कृत शान्ति अचानक गली-मोहल्ले से विलुप्त होने लगी। अचानक एक ओर से कुछ हाहाकार की आवाजें आने लगी। मैं कुछ समझ नहीं पाया। और जब तक कुछ समझता, दंगाईयों की एक टोली बहुत तेजी के साथ मेरी ओर बढ़ती चली जा रही थी। वे लोग ईंट, पत्थर, तलवार, लोहे की छड़, लाठी, मशाल आदि हथियार लिये दौड़े चले आ रहे थे।
एक बार तो उन्हें देखकर मेरी सांसे थम ही गई। मैं मिट्टी के बूत की भाँति स्थिर हो गया। मैं चाह रहा था कि भाग जाऊँ पर डर के मारे मैं अपनी जगह जड़ हो गया था। कितना लाचार था मैं उस समय। पर फिर याद आया कि मैं पुलिस की सुरक्षा में खड़ा हूँ। हालांकि यह असुरक्षित सुरक्षा थी। पर मेरे लिए यह डूबते में तिनके का सहारा बनी हुई थी। पर मैं कौन हूँ? जिसे इतनी सुरक्षा मिली है।
नहीं- नहीं मैं कोई वी0 आई0 पी0 नहीं हूँ जो उन दंगाइयों की दलील सुनने वहाँ आया हूँ। हालाँकि मेरी उस समय की मनोदशा, दिल का खौफ और परजीवी प्रकृति (पुलिस वालों पर आश्रित होना) बाह्य रूप से मुझे किसी वी0 आई0 पी0 से कम नहीं आँक सकती थी। पर वास्तविकता तो यह है कि मैं तो एक मामूली सा पत्रकार हूँ जो अपनी पूरी टीम के साथ घटना स्थल की रिर्पोटिंग के लिए वहाँ उपस्थित था।
पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है जो साहस की बुनियाद पर अपना करियर बनाता है। जो अपने जज्.बे और जुनून से अँधेरे में दबे सच को रोशनी दिखाकर दुनिया को वास्तविकता से रूबरू कराता है। इस पेशे में स्पष्टवादिता, चतुरता और इन सभी से कहीं अधिक महत्वपूर्ण ‘साहस’ की आवश्यकता होती है। पर उस दिन मुझे अपने साहस का अहसास हुआ। मेरे इस विशालकय शरीर में चूहे का दिल निवास करता है। मुझे अच्छी तरह याद है स्कूल-कॉलेज की हर क्लास में अपनी वीरता के हमने ढ़ेरों किस्से गाये थे। लड़कियों पर इम्प्रैशन ड़ालने के लिए ऊँची-ऊँची आवाज में ड़ींगे मारना। उल्टे-सीधे फिल्मी डायलॉग बोलना। किसी भी दब्बू लड़के को पीटकर खुद को हीरो साबित करना, क्लास की बैंच पर कूदकर खुद को जिम्नास्ट साबित करना और ऐसे अनगिनत ख्याल एक ही पल में एक के बाद एक मेरे दिमाग में आते जा रहे थे। पर आज सच के एक दृश्य ने मेरी भ्रम के बादलों की दुनिया को कहीं विलुप्त कर दिया। ओह! कितना शर्मिंदगी महसूस की उस वक्त मैंने। कल्पना से बाहर की दुनिया कितनी निदर्यी है और इसी के साथ ही मैंने अपने करियर को असफलता के पर से उड़ते देखा। मेरे पैर धीरे-धीरे पीछे हटने लगे थे। और आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा था। धुँधले से इस माहौल के बीच इक हल्की सी रोशनी ने मुझे भ्रम और वास्तविकता के बीच उलझा दिया। मुझे लगा जैसे कोई झाँसी की रानी की तरह उस युद्ध के मैदान में अपने शौर्य का परिचय देती हुई आगे बढ़ रही हैै। पर ये क्या.............. एक झलक के बाद ही वो कहाँ खो गई। शायद मेरी ही आँखों का धोखा था। डर के कारण कुछ-कुछ दिखाई दे रहा था। शायद मेरे अंदर कहीं किसी कोने में छुपा बैठा साहस मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने की असफल कोशिश कर रहा था। क्योंकि अब मैं पुलिस व दंगाईयों की टोली के बीच खुद को ढूँढ़ रहा था कि मैं किस की तरफ खड़ा हूँ कि अचानक.............
वही धुंधला चेहरा जो अब सच बनकर मेरी बाहों में पड़ा था। वो बेचैन सा शरीर मेरी बाहों के सहारे में अचानक खुद को सहज महसूस करने लगा। उसके उस मासूम से चेहरे पर बेखौफ हिम्मत की चमक मुझे सम्मोहित कर रही थी। उसके गुलाबी गालों पर धूल की हल्की सी परत वाला वो चेहरा काली घटा में से झाँकते चाँद सा लग रहा था। और उस पर वो पसीने की बूँदे जैसे चाँद की रोशनी से टिमटिमाते तारे। वो बड़ी-बड़ी आँखें जो मेरी आँखों पर थम गई थी, उनमें लगा काजल जो थोड़ा सा बह गया था मानो नीले आकाश में बहती घटा हो। भगवान ने उसके चेहरे के एक-एक भाग को बखूबी तराशा था। मेरी बाहों में उसकी वो मजबूत पकड़ मेरे अंदर उसके प्रेम का संचार कर रही थी। 15 सेकण्ड का वो समय जिसमें हम न कुछ कह पाये, न कुछ समझ पाये। बस समझे तो वो वादा जो आँखों ही आँखों में हमने एक दूसरे से किया कि “हम सिर्फ एक दूसरे के लिए बने है।” उन 15 सेकण्ड में हमने आँखों ही आँखों में जीवन भर साथ निभाने की कसमें खा ली। हम पूरी निष्ठा से सारी उम्र एक दूसरे का साथ निभायेंगें। अपने दिल के भावों को शब्दों में पिरोते हुए मैंने अपने लब खोलने ही चाहे कि अचानक..............
उसके गुलाबी चेहरे पर चमकती पसीने की बूँदे लाल हो गई। मेरे हाथों में एक झटके के साथ उसका भार कम हो गया। ज़्ामीं पर पड़ा उसका धड़ और मेरे हाथों में उसका सर। उसकी वो बड़ी-बड़ी खुली आँखें अभी भी मुझसे कह रही थी ‘‘हम जीवन भर साथ रहेगें।’’ और मैं हकदम उसकी आँखों के विश्वास को अपना विश्वास नहीं बना पा रहा था। दिल कहता है कि वो झूठ नहीं बोल सकती। दिमाग कहता है कि वो अब नहीं..................
दंगाईयों ने मेरी बाहों में ही उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। और मैं आवाक्् खड़ा सब देखता रहा।
आज भी उसकी आँखें मुझे उसके प्यार का अहसास कराती हैं। उसका वो क्षणिक स्पर्श आज भी मेरी यादों में बसा है। इसके साथ-साथ एक ग्लानि जो उस क्षण से आज तक मेरे अन्दर है-‘‘कि वो मेरी कायरता के असुरक्षित घेरे में मुझसे दूर हो गई। मेरा एक पल का साहस हमारे एक पल में देखे उस सपने को साकार कर सकता था। मेरा क्षणिक आत्मविश्वास हमें जीवन की डगर पर साथ-साथ कदम बढ़ाने में सहायक होता।
पर सच तो यह है कि आज भी मैं उन मृत सपनों को जीवित करने के एक और भ्रम मंे खो चुका हूँ...................

3 comments:

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

bahut sundar kahani... aur dangaiyon kee nirmamtaa ko jatati yah katha dukh bhari hai..

Er. सत्यम शिवम said...

Kya kahu,very imotional story..pyaar to hoti hai waisi bhavna bas do pal me sadiyo sa pratit hoti hai..bhut sundar likha hai aapne.

Neeraj Tomer said...

aapki pratikriya k liye bhaut bhaut dhanaywad