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6.5.08

हम अपनी जिद पर कायम रहे

हरे प्रकाश उपाध्याय की दो कविताएं
मुकदमा
मेरे कवि मित्रो
क्या तुम्हें वारण्ट नहीं मिला है अभी तक
समय ने मुकदमा दायर कर दिया है हम सब पर

हम सब समय की अवमानना के दोषी हैं
हम सब दोषी हैं
कि रात जब अपना सबसे अंधेरतम समय बजा रही थी
और बोलना सख्त मना किया गया था
हम गा रहे थे प्रेमगीत
हम लिख रहे थे दोस्तों को चिट्ठियां
हम पोस्टर पर कसी मुट्ठी वाला हाथ बना रहे थे
सूरज जैसा रंग उठाये कूचियों में

जब सोने का समय था
हम जाग रहे थे और लिख रहे थे कविताएं
जबकि समय ने अंधेरा फैलाया था
सोने के लिए।
बस सोने के लिए या थोड़ा बहुत रोने के लिए

हम सब पर अभियोग है
कि हम शामिल नहीं हुए प्रार्थनासभाओं में
रात के अवसान पर
जब दो मिनट के मौन में खड़ा होना था
हम चिड़ियों के सुर में चहचहा दिये

बारिश की , धूप की परवाह नहीं की हमने
चाहे जैसा भी रहा मौसम
हम अपनी जिद पर कायम रहे
मौसम तो इसलिए बदला जा रहा था
कि हम ठिठकें ठहरें थोड़ा डरें
खड़ा होकर सिर झुकायें
कभी कभी जी हुजूर जी हुजूर किया करें
और हम कठिन से कठिन दौर में
ठठा कर हंसते रहे।

हमारे ऊपर इल्जाम है
कि सुबह या शाम
हमने कभी तो नहीं किया ईश्वर को सलाम

हमें चेतावनी दी गयी है
कि हम समय की अवमानना के संगीन जुर्म के अपराधी हैं
हम क्षमा मांग लें
समय की अदालत में
नहीं तो हम पर पहाड़ तोड़ कर गिराया जाएगा
या बिजली गिरायी जाएगी

मेरे कवि मित्रो
क्या तुम्हें वारण्ट नहीं मिला है

हमें सब कुछ खबर है
और हम दोस्त की तरह रीझे हैं पहाड़ पर
बिजली के सामने रखने जा रहे हैं प्रेम का प्रस्ताव
बिजली गुस्सा करती है तो और चमकदार लगती है हमें
पहाड़ तो हमारा घोड़ा है
उसी पर बैठ कर जाएंगे हम चांद को ब्याहने

ओ समय
तुम नदी का पानी हो
जिसमें हमारी चांदनी नहाती है
हम भला क्या डरें तुमसे
कहां है तुम्हारी अदालत
हमें नहीं मालूम!

क्या जानते हो
नदी में तैरते हुए सोचता हूं
पानी नदी के बारे में क्या जानता है
नदी से पूछता हूं
तुम पानी की हो या मेरी

नदी कोई जवाब नहीं देती
वह हवा की ओर इशारा करती है

धूप से आंखमिचौली खेलती हवा के बारे में
हम क्या जानते हैं?

कोई किसी के बारे में क्या जानता है

एक स्त्री जो रोज चूल्हा जलाती है
आग के बारे में क्या जानती है

आग ही आग के बारे में क्या जानती है

मैं उदास हूं तो मित्र
तुम भी उदास हो जाते हो
मेरी उदासी में
किसकी हंसी शामिल है

तुम क्या जानते हो ?

बहुत दिनों बाद भड़ास पर लौटा , अच्छा लगा साथियों की सक्रियता देखकर । आप सबको सलाम । नये संचालक मंडल के नये साथियों को बहुत शुभकामनाएं , बधाई । भड़ास सम्मेलन जल्दी हो ताकि अच्छी तरह गाली- गलौज हो सके । लेकिन मैं कोई पुरस्कार नही लूँगा , मैं टू आप सबका प्यार लूंगा । सब साथी पुरस्कार के योग्य हैं , सिर्फ़ अकेले मैं महान नही हो सकता । सारे साथी महान हैं । आते ही कविताएँ पेल रहा हूँ अपनी । मैं आत्म मुग्ध हूँ । क्षमा--याचना सहित .....आप सबका दोस्त -हरे

4 comments:

VARUN ROY said...

पहली बार आपसे मुखातिब हूँ . प्रणाम स्वीकार करें हरे दादा. दमदार और अर्थपूर्ण कविता है. दादा जब हमें अपने ही बारे में कुछ ख़बर नहीं तो नदी,हवा,पानी के बारे में क्या जानें. हाँ ये दीगर है कि हवा को , पानी को नदी को अपने बारे में कोई ख़बर है कि नहीं.
वरुण राय

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

हरे दादा,वापिस भड़ास के रिंग में स्वागत है अब आकर करिये अपनी कविताओं की WWF जारी...

Anonymous said...

हरे दादा,
सुस्वागतम.
अरे आपके इस स्वर लहरी के बगैर अधूरा अधूरा सा प्रतीत हो रहा था. चलिए अब वापस हमें गोते लगवाइये.
जय जय भडास

Unknown said...

@varun ray ji,@ dr. sab @ rajnish bhaee ---aap sbko nmskar.