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24.5.08

दिल्ली में एक बरसः जैसे कई सदियों को जी लिया, जैसे बहुत थक गया

29 मई को दिल्ली आए एक साल पूरे हो जाएंगे।

आज जब सोच रहा हूं तो लग रहा है जैसे एक बरस नहीं, दस बरस से जी रहा हूं दिल्ली में। जैसे लग रहा है कितना कुछ कर लिया दिल्ली में, जैसे कितना थक गया दिल्ली में।

दसियों तूफान, झंझावात, खतरे, आरोप, बदनामियां, नाकामियां, कमजोरियां आईं, खड़ी हुईं, प्रभावित कीं, पीड़ित हुआ, कठघरे में खड़ा हुआ, सफाई दी....और आगे बढ़ा।

इन दिनों फिर मुश्किलों के ऐसे भंवर में फंसा हूं।

ऐसे में हर बार लगता है सब छोड़छाड़ कर गांव ही चला जाए। कुछ महीने सुकून से वहां गुजारने के बाद फिर नोकरी चाकरी तलाशी जाए या कहीं पंसारी की दुकान खोलकर हींग तेल नून बेंचा जाए या फिर कोई धंधा शुरू किया जाए।

ऐसी मनःस्थिति इस एक साल में दसियों बार आई पर जाने क्या है अंदर कि हर मुश्किल के बाद अंदर का मनुष्य कुछ ज्यादा पक्कावाला और कुछ ज्यादा चुनौती कबूलने के लिए तैयार हुआ लगता है।

मजेदार ये कि मेरा कोई दुश्मन नहीं रहा, मैं खुद ही अपना दुश्मन बना। किसी दुश्मन ने दुश्मनी नहीं की, दोस्तों ने दगा दिया। किसी और ने झटका नहीं दिया, अपनों ने धोखा किया।

पर उम्मीद तो उम्मीद है, जिसके बल पर हर कोई जीता है, मैं भी। और ये उम्मीद है बेहतरी के दिन आने के, अच्छे दिन आने के, सपने पूरे होने के......व्यक्ति के रूप में, समाज के हिस्से के रूप में और देश के नागरिक के रूप में...तीनों रूपों में ही बस एक ख्वाब....सब सुंदर, सरल और सहज हो

वो सुबह कभी तो आएगी.....
...और
तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर....

संक्षेप में ये कि इस एक साल ने मुझे जितनी प्रसिद्धि और कुख्याति दिलाई है, उतना किसी और बरस में नहीं मिली। या तो खुशियों के शिखर पर रहा या फिर दुखों के गर्त में पहुंचा। बीच में कभी नहीं रहा। बीच वाला जीवन कभी जिया ही नहीं। साहस और दुस्साहस, बस यही दो छोर पकड़े रहे मुझे। जकड़े रहे मुझे।

समाजसेवा और दोस्ती-यारी निभाने की प्रवृत्ति के चलते ढेरों झटके खाए। अब भी खा रहा हूं। पर जाने क्या है कि तब भी मुझे अकल नहीं आती। लगा रहता हूं अपना छोड़ परायों को अपना बनाने में, उनकी दिक्कतें हल करने में, उनको उबारने में। और यह सब करते करते खुद डूबने लगता हूं। इन परायों की मुश्किलें खत्म हो या कम हो, पर बदले में मुझे मिलता है मझधार, भंवर, अकेलापन, तनहाई, शर्मिंदगी, अवसाद और बदनामी।

क्या करूं....बचपना गया नहीं, अकल आई नहीं।

मेरी कमजोरियां,
मेरी बदमाशियां,
मेरी आवारगी,
मेरा देहातीपना,
मेरी अराजकताएं,
मेरे चूतियापे,
मेरी नशाखोरी....

दर्जनों बुराइयां हैं जिनके साथ न चाहते हुए भी जीता रहता हूं। चाहता हूं कि ये सब बुराइयां एक एक कर खत्म हो जाएं और मैं किसी परम संत की तरह मेरे व्यक्तित्व में केवल सदगुण ही रह जाएं। केवल अच्छाई ही रह जाए पर मेरे अंदर का राक्षस है कि मरता ही नहीं। मेरे अंदर का देवता है कि वो मजबूत होता ही नहीं। दोनों बराबर बराबर जीते रहते हैं और अपने लिए और भी ज्यादा हक व विस्तार की मांग करते रहते हैं।

कहीं इन दोनों की जंग में मैं खुद नष्ट न हो जाऊं। नष्ट होने, मरने से नहीं डरता मैं लेकिन न चाहते हुए जो बदनामियां आ जाती हैं, उनका क्या करूं। उनके साथ कैसे जिऊं। उनसे कैसे उबरूं। कैसे खुद को अकेला कर पहाड़ की खोह में तपस्या करने के लिए डाल दूं ताकि न रहेंगे आसपास मनुष्य और न करनी होगी अच्छाई और न करनी होगी बुराई।

पर क्या ऐसा संभव है। मजबूरी है कि जीना इसी समाज के बीच में है। इन्हीं हालात में है जहां बुराई भी अच्छाई भी है। वो बुरा भी है अच्छा भी है। हम सब बुरे भी हैं और अच्छे भी हैं। लेकिन वो हम और आप अपने बुरे को पूरी तरह क्यों नहीं मार पाते, किल कर पाते, निप इन द बड कर पाते....।

पता नहीं क्यों। पर आज तो सिर्फ इतना भर कहने को जी हो रहा है कि....

किस्मत में क्या लिखा है, अल्लाह जानता है
बंदे के दिल में क्या है, अल्लाह जानता है

उपरोक्त लाइनें हर मुश्किल में किसी ताकत की तरह मेरे साथ खड़ी हो जाती हैं। देखते हैं, ये बुरा दिन कब खत्म होता है और कब नीके दिन आते हैं।

अभी तो बस केवल डिप्रेशन है, केवल हवा-हवाई मिशन है, केवल टेंशन और टेंशन है और ढेर सारा सस्पेंसन है।

ऐसे बुरे दिनों में मैं उन सभी मित्रों का आभारी हूं जिन्होंने चमत्कारिक तरीके से मेरे संग खड़े होकर साथ दिया। उन सभी का भी आभारी हूं जिन्होंने कठघरे में खड़ा किया, फांसी पर चढ़वाया, मुझे नष्ट किया, मुझे बदनाम किया....।

शायद ये दुनिया बच्चों सा खेल तमाशा है, तभी तो चचा ग़ालिब ने कहा है ...

बाजीचएअतफाल है दुनिया मेरे आगे,
होता है शबो रोजो तमाशा मेरे आगे।
गो हाथ में जुंबिश नहीं, आंखों में तो दम है,
रहने दो मेरे साथ सागरो मीना मेरे आगे
(कुछ शब्द छूट रहे हैं, भूल रहे हैं या गलत लिख गए हैं, माफ करिएगा...)

और बच्चों की इस दुनिया में सबकी अपनी अपनी भूमिकाएं हैं और हर कोई किसी एक भूमिका को पकड़कर उसी में जिंदगी खपा लड़ा देने के लिए आमदा है, भले ही उससे किसी और का कितना भी नुकसान क्यों न हो जाए। दूसरों का नफा नुकसान सोचने की फुर्सत किसे है, सब अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग अलापने में लगे हैं।

हे ईश्वर, उन्हें माफ करो, वो नहीं जानते उन्होंने क्या किया
हे ईश्वर, मुझे माफ करो, मैं नहीं जानता मैंने क्या किया

बस, न मरने की ठानी है, न हारने की मानी है, हालात चाहें जितने प्रतिकूल हों, उससे उबरने और आगे बढ़ने की कोशिश जारी रखूंगा, जिंदगी से बस इतनी भर ही सीख ली है। समय का पहिया घूमेगा और फिर अच्छे दिन आएंगे।

मुझको कदम कदम पर भटकने दो वाइजों,
तुम अपना कारोबार करो, मैं नशे में हूं.....।
ठुकराओ चाहे प्यार करो, मैं नशे में हूं....।
जो चाहे मेरे यार करो, मैं नशे में हूं....।

देखते हैं, दिल्ली का दूसरा साल कैसा होता है......मैं तो ये मानकर चल रहा हूं कि...

इक बरहमन ने कहा है, ये साल अच्छा है

जय भड़ास
यशवंत

5 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

अगर आपका दिल्ली ने ये हाल कर दिया तो फिर मुंबई में क्या होता? न तो हम देवता हैं और न ही राक्षस,इनमें से जब भी कोई हमारी मौलिक मनुष्यता पर हावी होने लगता है तो मुसीबतें गाढ़ी होने लगती हैं। बस जीवन का एक ही सूत्र समझ में आया कि बस खुद को लहरों के हवाले कर दो और बहने का आनंद लो अगर उसे पार उतारना होगा या किनारे लगाना होगा तो लगा देगा वरना हम कितनी भी ताकत लगा लें हमारा वजूद ही क्या है, कठपुतलियां ही तो हैं हम सब.....

gurudatt tiwari said...

Dada ab aap to iss bedil dilli ke dil ban gayen hain

यशवंत सिंह yashwant singh said...

शुक्रिया डाक्टर साहब और गुरुदत्त जी। अभी पता चला है कि कुछ लोग फर्जी नाम और आईडी से ब्लागर आईडी क्रिएट करके मेरे बारे एक नए ब्लाग पर पोस्ट और अन्य ब्लागों पर कमेंट के रूप में ढेर सारी अर्नगल बातें फैला रहे हैं। जाने किन किन की कैसी कैसी खुन्नस है, पर जो सच है उसे मैं जानता हूं। आज लोग उंगलियां उठा रहे हैं क्योंकि मैं सच के साथ हूं। सच के साथ होने के रिएक्शन में जो हो सकता है, वो सब हो रहा है, किया जा रहा है, कराया जा रहा है, फैलाया जा रहा है।

मैं बोलूंगा पर अभी नहीं। अभी तो नफरत, दुत्कार और बदनामी को जी लूं, सुन लूं, सह लूं। जब वो लोग कामयाब हो जाएं तब मैं कहूंगा।

उम्मीद है कि आप सभी लोग इस मौके पर हमेशा की तरह चट्टान की तरह खड़े रहेंगे। शायद यही हौसला व ताकत है जो जीते रहने की प्रेरणा देता है वरना मरने के तो लाखों मौके उन लोगों ने अतीत में भी और आज भी क्रिएट किए थे, क्रिएट कर रहे हैं और क्रिएट करते रहेंगे।

यशवंत

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

दादा,आजकल कुछ घटिया किस्म के लोगों ने तो (कु)प्रसिद्धि के लिये एक शार्टेस्ट कट तलाश लिया है कि हरे प्रकाश या यशवंत सिंह के ऊपर थूक दो बस प्रसिद्धि मिल जाएगी हिंदी ब्लागिंग में तमाम लोग जानने लगेंगे। अगर ऐसे किसी सुअरिया जने में दम है तो भड़ास के सबसे ज्यादा कटखने कुत्तों को पत्थर मार कर दिखाए, अपनी औकात की पैमाइश करनी है तो जरा एक पत्थर डा.रूपेश श्रीवास्तव,रजनीश के.झा,मुनव्वर सुल्ताना,मनीषा दीदी या गुरू तिवारी पर उछाल कर दिखाए फिर देख ले कि हम कटखने उस सुअरिया के जने को उसकी औकात कैसे बताते हैं। फ़र्जी आई डी बना कर थूकना तो वैसे भी हम पर असर नहीं डालता,जो कफ़न सिर पर बांध रखा है उससे रुमाल की तरह ऐसे फ़टैल लोगों का थूक पोंछ कर उन्हें माफ़ कर देते हैं और अगर कोई खुल कर सामने आए तो मजा आए.....
जय जय भड़ास

Anonymous said...

दद्दा प्रणाम,
कल मैं कार्यालय नहीं आ पाया और आज आते ही आपके दर्द से रूबरू हो गया. कोन मई का लाल हो गया है. ससुरे को पता होना चाहिए की आकाश में थुकोगे तो अपने मुंह पर ही वो गिरेगा. वैसी अगर इन्हें भडासी से पंगे ही लेने हैं तो सामने आ जाएं, हम गाँधी गिरी और जूता गिरी दोनों जानते हैं. बस दद्दा सुख दुःख को आत्मसात करके डेट रहो क्यूंकि अब यहाँ होई "मैं" नहीं है सब "हम" हो गए हैं.
जय जय भडास