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24.5.08

पंडितजी,बधाई

..पं.सुरेश नीरवजीआप की गजलें पढ़-पढ़कर लग रहा है कि मुझे भी कहीं हास्य गजलें लिखने का रोग न लग जाए और लग जाए तो बुरा भी नहीं है वैसे जब कुछ लिखना चाहता हूं तो हालत कुछ यूं हो जाती है-
दिल के अरमा आंसुओं में बह गये
जो भी कहना था गुरूजी कह गये।

पंडितजी,बधाई
मृगेन्द्र मकबूल

2 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

मक़बूल भाई, जो भी कहना था गुरूजी कह गये।
गुरू जी भी जो कह रहे हैं कोई बड़ी बात नहीं है वो सारे शब्द जो उन्होंने इस्तेमाल किये हैं मेरे पास मोटे से काग़जी शब्दकोश में पहले से ही लिखे हैं बस महाराज उनकी सेटिंग में हेराफेरी कर लेते हैं शायद इसी को हुनर कहते हैं भई अपन तो ठहरे बोदे तो ज्यादा कविता-सविता और गजल वगिअरह समझ नही पाते बस जो तुक में अच्छी लगती है उस पर "वाह-वाह क्या बात हैं" कह देते हैं और खुद क्योंकि समझ नहीं पाते कि बात क्या है?

Anonymous said...

मकबूल भाई,
अरे आँसू में कुछ मत बहाओ जो पलना है पेल डालो.