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10.10.08

ग़ज़ल

लोग सुनते रहे दिखाने को,
कौन समझा मगर फ़साने को।
और क्या देखने को बाकी है,
खूब देखा है इस ज़माने को।
उनका आना भी एक बहाना था,
वक्त अपना कहीं बिताने को।
दर्द की जो ज़बान चुप करदे,
ऐसी मरहम कहाँ लगाने को।
तिनके-तिनके सजा के जोड़े हैं,
आशियाँ फ़िर नया बनाने को।
तौबा मकबूल ने करी उसको,
कुछ भी जब ना रहा जलाने को।
मकबूल

1 comment:

Anonymous said...

तिनके-तिनके सजा के जोड़े हैं,
आशियाँ फ़िर नया बनाने को।
तौबा मकबूल ने करी उसको,
कुछ भी जब ना रहा जलाने को।

मकबूल भाई,
बहुत खूब, बारे आशिकाना अंदाज में आज को बयां किया है,
बधाई स्वीकारें