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25.10.08

इंसानों की मंडी...

हर शहर हर कस्बे में हर रोज बिकते हैं हजारों लाखों लोग. हम में से हर व्यक्ति ने इन्हें सिर्फ बिकते हुए नहीं देखा बल्कि खुद खरीदा भी है. बकायेदा रोज सुबह हर शहर में लगती है इंसानों की मंडी. जी हाँ आपने सही समझा मैं बात कर रहा हूँ रोज सुबह बिकने वाले दिहाडी मजदूरों की. अब तो दो दिनों बाद दिवाली भी है. इनका दो दिनों तक लगातार बिकना जरूरी भी है. न बिके तो दिवाली कैसे मनेगी. वैसे भी बच्चों को दिवाली के दिन चीनी मिठाई और मिटटी के एक-दो खिलौनों के अलावा कुछ दे भी नहीं पाते ये बिकाऊ लोग. इनकी सब से ज्यादा चिंता नेताओं और सरकार को ही होती है. पांच साल में एक बार इलाके का नेता दर्शन भी दे देता है. पेट के नाम पर वोट भी ले जाता है. मगर औद्योगिक क्रांति है न साहब तो बेचारा नेता भी इनके भूख को भूलकर लखटकिया कार योजना में इन्ही के छाती पर गोली चलवा देता है. ये कहते हैं "माई-बाप बात तो पेट की हुई थी लखटकिया की तरफदारी आप क्यों कर रहे हैं?" सरकार कहती है "चुप मूरख तुझे पता नहीं तरक्की करनी है अपने राज्य की. इसी में तेरा भी भला है." मूरख कहता है"लेकिन साहब जमीन कैसे दे दें इसे तो मेरे पुरखों ने अपने लहू से सींचा है". साहब फिर बिफरता है "जाहिल, औद्योगिक क्रांति वाला क्रन्तिकारी उद्योगपति तुझे काम भी तो देगा" जाहिल गिड़गिडाता है "हुजूर जमीन दे कर तो मैं वैसे भी बेकार हो जाऊंगा फिर काम छीन कर कौन सा काम दे रहे हो आप? नहीं हुजूर मैं अपनी जमीन नहीं दूंगा" हुजूर अपने चेलों को हुक्म देते हैं साम दाम के बाद अब दंड का सहारा लो. चेले अपनी बंदूकों का मुहँ खोल देते हैं. पिछले चुनाव में फूल बरसाने वाले अब गोली बरसाने लगते हैं. जमीन पर औद्योगिक क्रांति वाले क्रन्तिकारी का कब्जा हो जाता है. कभी कभी विपक्ष जिद पर अमादा हो जाता है और नहीं भी हो पाता. मगर इंसानों की मंडी हर सुबह गुलजार हो उठती है. क्यों कि इस बार विपक्ष, पक्ष बन गया है. उसे भी औद्योगिक क्रांति लानी है. फिर अमेरिका वाले पापा को भी तो जवाब देना है कि उसके यहाँ निवेश पूरी तरह सुरक्षित है. सो जमीनें तो हथिया ही ली जाती हैं. मगर इन बिकाऊ लोगों का लोकतंत्र में विश्वास बना रहता है. वोट देने का धर्म ये पूरा करते रहते हैं. कोई औद्योगिक क्रांति वाले साहब से ये नहीं पूछता कि आपने पिछली बार कब वोट दिया था आपको याद भी है? पेट की लड़ाई लखटकिया के सपनों को नहीं हरा पाती. क्यूँकि लखटकिया के पास पुलिस हैं, गुंडे हैं, लेफ्ट है राइट है. इनके पास तो बस वोट है जिसका प्रयोग ये करते ही हैं मगर लखटकिया इन्ही के बनाये हुए नुमाईन्दों को खरीद ही लेती है. यही हस्र होता है जब भूख अपनी औकात भूल कर लखटकिया से टकरा जाती है. कोई ये न पूछे कि हम पत्रकार कभी कुछ क्यों नहीं कर पाते. सब जानते हैं हमारे लाला को भी औद्योगिक क्रांति का प्रचार प्रसार विज्ञापन लेकर करना है आखिर वो भी तो इसी तरह का क्रन्तिकारी है.

4 comments:

गुफरान सिद्दीकी said...

चन्दन भाई एक बार फिर अपने ये साबित कर दिया की आप कलम से जो आवाज़ उठा रहे हैं वो हर आम और खास को सोचने पर मजबूर कर देगी कि वास्तव में हम विकास की सीडी लाशों पे पैर रख कर चढ़ रहे हैं.और हमारे देश के भ्रष्ट नौकरशाह और राजनेता बड़े उद्योगपतियों के हाथो की कटपुतली बन कर उनके इशारों पर नाच रहे हैं.आपसे हम सभी आशा करते हैं ki इसी तरह आप ऐसे लोगों को आइना दिखाते रहेंगे.
आपका हमवतन भाई गुफरान (ghufran.j@gmail.com)

सचिन मिश्रा said...

Bahut badiya.

Anonymous said...

As always !!! ur rght dear !!!
its totally true but difficult to accept by those person who r pure communist...bcoz it goes against the communism.

Anonymous said...

As always !!! ur rght dear !!!
its totally true but difficult to accept by those person who r pure communist...bcoz it goes against the communism.