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31.10.08


मां को एक पत्र-

संजय सेन सागर
तुम मेरे लिए वो सूरज हो जिसका रोशनी में मैं चला हूँ ,माँ तुम मेरे लिए वो धरती हो जिसमें मै पला हूँ। माँ मैं तुम्हारे कदमों के निशां पर चलकर आगे बढ़ा हूँ।माँ मैने देखें है हमारी जरा सी खुशी के लिए आपके गिरते आंसू , हमारी जरा सी ठंडक के लिए आपका गिरता पसीना। माँ तुमने ही बनाया है इस मकां को घर । माँ मैनें आपके आँचल के तले ही मनाई है होली और दीवाली।माँ तुम्हें तो वो याद ही होगा जब तुम बीमार हो जाती थी और अपने इलाज की जगह मुझे खिलौने दिलाती थी । मैं नादान था खुश हो जाता था ।पर तुम्हारे आंसुओं से भीगे तकिये मुझे हर सुबह मिलते थे।माँ तुमने ही सिखाया था ना मुझे हर वक्त सच बोलना फिर मेरी खुशी के लिए क्यों झूठ बोल देती थी तुम।माँ तुम सत्य की वो मूरत हो जिसने झूठ को ख्वाबों में भी हराया है। माँ तुमने ही बनाया है मेरे अस्तित्व को। तुमने ही सिखाया है उंगली थामकर मुझेचलना।तेरे बलिदान और त्याग के कारण ही तुझे भगवान का रूप कहा जाता ,मैने कभी भगवान को नही देखा पर मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ की बह तेरी ही परछाई होगी। आखिर कहां से लाती हो माँ तुम इतना सामर्थ्य और साहस जो सह जाते है हमारी जरा सी मुस्कान के लिए, सारे जहां के दुखों को। माँ मुझे कुछ याद आता है की मुझे जब कोई मंजिल मिल जाती थी , एक पल में ही तुम्हारी पलकें भीग जाती थी और तुम अपने ही गिरे आंसुओं से मेरे लिए नया रास्ता बनाती थी।माँ तुम हरदम मुझको आगे बढ़ाती हो और जब मैं पहुंच जाता हूँ मंजिल पर तो फिर क्यों खुद को पीछे छुपाती हो।तेरे आँचल में एक अजब सा जादू है माँ ,सच जब जब सोता हूँ तेरे आंचल में तो एक नया अहसास सा जगता है जो तेरे आँचल के बारे में हर वक्त यही कहता है कि‘ बिचली चमके या तूफां आयेलोग घरों में छुप जाते हैपर अपनी तो फितरत ऐसी हैकि बिचली चमके या तूफां आयेमाँ के आंचल में छुप जाते है।माँ ये सिर्फ चंद पंक्तियां नही है ये तुम अच्छी तरह समझती हो क्योंकि मै जानता हूँ कि तुमने भी अपनी माँ के आंचल में छुपकर ये अहसास पाया है।माँ जब तुमने मुझको नये कपड़े दिलवाये थे तभी तुमने अपने फटे कपड़े भी सिलवाये थे मैने पूछा था तुमसे की क्यों तुमने फटे कपड़े सिलवाये हैं तो तुमने बड़ी मासूमियत से कहा था की तुम्हारे पिता की आखिरी निशानी है उन्होंने ही खरीदवाये थे। माँ आज समझ आता है मुझे तेरा वो दर्दीला चेहरा जो दबा रहता था मेरी मुस्कान के तले। वो तेरा हर एक झूठ जो होता था सिर्फ मेरी खुशी के लिए।माँ मेरे बचपन की यादों की किताब खुलने लगी है और साथ ही साथ तेरे साथ बिताये हर एक पल की आरजू फिर दिल में पलने लगी है।माँ तुझे नादानी और बचपन में मैंने जितने दुख दिए ,जितने दर्द दिए आज मैं उन सभी के लिए तुम से माफी माँगता हूँ ।और तेरे त्याग एवं बलिदान को नमन करता
हूँ।

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3 comments:

RAJNISH PARIHAR said...

आपने सही लिखा है ये माँ....ही होती है जो ख़ुद गीले में लेट कर हमे सूखे में सुलाती है...लेकिन अब इस युग का क्या कहें...आज चार बेटे मिल कर एक माँ.... को नहीं पाल सकते जबकि एक अकेली माँ सात बचों को पाल लेती है...ये माँ ह तो है जो हर दुःख से लड़ती हुई हमे सुख देती है..माँ का कर्ज़ उतरने के लिए पता नही क्या क्या करना होगा....बहुत अच्छा लिखा ..धन्यवाद....

News4Nation said...

dhaynwaad rajnish ji

Anonymous said...

bahut khoob dost