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25.10.08

भड़ास फ़ैन क्लब/एग्जास्ट फैन क्लब/कूलर क्लब/ए.सी. क्लब में मैं कहां रहूंगी?

भड़ासी बाईयों और भाईयों, जब किसी साम्राज्य का विस्तार हो जाता है तो उसमें फटाव आने लगता है और अलग-अलग विचार धाराएं पैदा होने लगती हैं। ठीक वैसा ही भड़ास के साथ हो रहा है। पहले यहां सब भड़ासी मात्र हुआ करते थे अब इनमें भी श्रेणियां बनने लगी हैं। कुछ सक्रिय, कुछ निष्क्रिय, कुछ अक्रिय लेकिन भड़ासी तो सभी हैं क्योंकि जो कभी एकाध बार गलती से इधर मुंह मार लिये होंगे। अब भड़ास में फ़ैन क्लब बना है यानि कि जो फैन हैं वही भड़ासी हैं बाकी सब जो हैं नाम के भड़ासी हैं लेकिन उनकी सदस्यता अक्रियता या निष्क्रियता के आधार पर समाप्त करी तो गिनती के मुश्किल से पचास ही बचें शायद। मैं एक भविष्यवाणी कर रही हूं कि आने वाले समय में इस क्लब में कई विभाजन हो जाएंगे जैसे कि अभी कुछ लोग फैन हैं उनमें से जो ज्यादा सक्रिय होंगे उन्हें "एग्जास्ट फैन" कहा जाएगा, जो इनकी अपेक्षा अधिक सक्रिय होंगे उन्हें "कूलर" और जो कूलरॊं से ज्यादा सक्रिय होंगे उन्हें "ए.सी" की श्रेणी में रखा जाएगा।

5 comments:

हिज(ड़ा) हाईनेस मनीषा said...

आपा न तो अब हम फैन हैं न कूलर न ही ए.सी. क्योंकि हमारी तो जो पूंछ थी अब समाप्त हो गयी है। पता है हम अब समझ पाए कि पूंछ तो जानवरों की होती है :)
डा.रूपेश की पूंछ भी इसी लिये समाप्त हो गयी। आपकी इस बात पर कोई चूं - चां भी कर दे किसमें इतना बड़ा सच पचाने का साहस है।

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

बहन जी,आप मानी नहीं और आपने ऐसा कुछ लिख ही दिया जो लंका मिर्च की तरह तीखा है और पिछवाड़ा सुलगाने वाले सच का स्वाद लिये हुए है।

Anonymous said...

आपा,
हम पंखे नही हैं और भडासी कभी पंखे हो भी नही सकते, विचारों के साथ भड़ास की आग उगलने वाले किसी के पंखने नही हो सकते, कोई भी सी हो अगर इसने भड़ास को ठंडा कर दिया तो वो भडासी हो ही नही सकता, और ऐसे संयंत्र से भडासी की पिछवाडे आग लग सकती है ठंडक नही.

RAJNISH PARIHAR said...

मेरे को समझ नहीं आता जब हम सब भादाश पर बराबर लिख ही रहें है तो फ़िर इन अगवाडे पच्वादे के चक्करों में क्यूँ पड़ जाते है....फैन क्लब नहीं था तो भी चल रहा था..अब क्या हो गया....लिखना है ...बहस करनी है तो कुछ सार्थक होनी चाहिए...गोविन्द गोयल जी शायद इसी लिए कवितायें लिखना छोड़ गए.....रजनीश परिहार....

मोहम्मद उमर रफ़ाई said...

जरा सन १८५७ के आंदोलन के बारे में तो लिखो आखिर तुम एक शिक्षिका हो और तारीख(इतिहास)पढ़ाती हो तो आवश्यक हो जाता है कि तुम भी इस पर अपनी राय और जानकारी बांटो। यह कुछ अलग सा ही प्रतीत हो रहा है भड़ास पर जबकि बगल में यशवंत जी की एक पोस्ट चिपकी है जिसमें उन्होंने डा.रूपेश श्रीवास्तव को बताया है कि भड़ास क्रांति का मंच नहीं है और दूसरी ओर इस आंदोलन का बड़ा सा एडवर्टाइज कर रहे हैं,ये एक अजीब विरोधाभासी विचार है लेकिन शायद यही द्वंद्व और भ्रम ही भड़ास की पहचान बन गया है।