तहलका यानी की तरुण तेजपाल, अपने नए कलेवर के साथ हिन्दी में लोगों के सामने है, शिद्दतों से लोगों की आस इस महीने पुरी हुई, मगर प्रश्न तहलका देखने के बाद कि क्या आस पर तरुण खरे उतरे ?
पत्रिका को हाथ में उठाते ही सबसे पहली नजर वापस गोधरा की याद दिलाती हुई, तेजपाल वापस तो आए, नए अंदाज के साथ भी मगर पत्रिका को देखने के बाद बस नए बोतल में पुरानी शराब से ज्यादा नही। लेखकों में प्रभाष जोशी, मंगेश डबराल, हरिवंश, प्रसून जोशी और अशोक चक्रधर को शामिल कर पत्रिका को मजबूती देने की कोशिश भी इन मजबूत लेखक के कमजोर लेख पत्रिका के पहले संस्करण पर शाख को बट्टा लगते से प्रतीत हो रहे हैं। अपने सम्पादकीय में तरुण का "कश्ती नई,सफर वही" की स्वीकोरोक्ती जरुर प्रशंसनीय है, परन्तु बाकी के सम्मानित लेखक नए विचार के बजाये अपने पुराने बीन के साथ ही नजर आ रहे हैं जिसने पत्रिका के प्रभाव को और कमजोर किया है।
तहलका ने अपने आवरण कथा को गोधरा और उसके बाद हुए दंगे पर केंद्रित रखा है, आज जब सारा हिन्दुस्तान आतंक की कसौटी पर है, कौम का बंटाधार इस सर्वधर्म समभाव वाले देश में धड़ल्ले से देश के कर्णधारों की सहमती से मीडिया की देख रेख में हो रहा है, पत्रिका का वापस उसी मुद्दे को लेकर सामने आना टी आर पी के तर्ज पर देश की एकता को ताक पर रख कर पुराने घाव कुरेद बेचने की कवायद से ज्यादा नही लगती है।
गोधरा, उसके बाद की घटना और नानावती आयोग की रिपोर्ट को जिस सनसनीखेज तरीके से पेश कर तहलका करने की कोशिश की गयी है, आज के वर्तमान परिपेक्ष में लोगों के घाव को कुरेदने का नुस्खा से ज्यादा नही लगता, बाजारवाद की शिकार भारतीय अर्थव्यवस्था में जिस तरह से खबरिया चैनल भुनाने की प्रवृति का शिकार है कमोबेश उसी से उत्प्रेरित तेजपाल की ये पत्रिका लगती है, बाढ़ से तहसनहस बिहार बंगाल उडीसा में बाढोपरांत अन्न अन्न को तरसते लोग, दूध को तरसते नन्हे बच्चे, महिलाओं की आबरू को बचाने के लिए अपर्याप्त वस्त्र, बिमारी और महामारी के शिकार लाखो भारतीय और इनके नाम पर करोडो की उगाही कर रही एन जी ओ और सरकारी तंत्र की नि:श्क्रियता तेजपाल के तहलका का हिस्सा नही रहे.
सम्पूर्ण पत्रिका को देखने के बाद ये तहलका कम और बेस्वाद मसाला ज्यादा लगता है.
सम्पूर्ण पत्रिका को देखने के बाद ये तहलका कम और बेस्वाद मसाला ज्यादा लगता है.
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