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22.10.08

माँ

माँ
जाड़े की रात्री मैं ठिठुरती - कांपती सूखे पत्र - सी हिलती , उकडूं बैठ निहारती छप्पर को , कहाँ से आती ये हवा सोचती ;पर न दिखा सामने पटविहीन पट जहाँ से प्रवेश करती बेधड़क , निर्लज्ज हवा विशाल अट्टालिकाओं के प्रशस्त उष्ण प्रकोष्ठों से पिटी दिखा रही , दादागिरी मेरी माँ की पीठ खुली मगर कान तक ढकी साड़ी ,बेलबूट की जगह ,छपे असंख्य छिद्र जिसमे अंत तक दुर्बल काय मेरी माँ पर प्रसारित - प्रशस्त बाहुपाश उसके , प्रगाढ़उष्णता से भरी करती स्वागत नित्यलौटा जब मैं विकल ; समीप रखी शाल उड़ा मुझे प्यार से कांपती उठती वह सुघड़ परोसती खाना मुझे एक रोटी व कुछ दाने दाल के ;फिरती हाथ पुचकारती कहती "ले बेटा बची आज एक ही रोटी खा गई में निठल्ली पूरी पाँच बेठी बेठी " अन्तिम निगल ग्रास शोण का माँ के हित तनिक भी तो न कर सका ;लाख योनियोपरांत देह मिली तो क्या जीवन बीते अभावों में प्रारब्ध के विराम तक धिक्कार है मुझ पर इन बाहुओं के बल पर देख माँ को कोने मैं जो लेटी थी जो बरफ की शिला सी ठंडी धरा पर , साड़ी को कफ़न सा लपेट करवटें बदलती ; ओह ! माँ तू मर क्यों नहीं जाती ?क्यों भुगत रही पीड़ा , किस प्रत्याशा से दांव लगाय बैठी मुझ निरुत्साही पर ; सहसा चोंक पड़ा मैं इस निज कुत्सित विचार से अंतरात्मा ने भी धिक्कारा , सोच माँ कीअविधमानता छलक उठे नयनों से अश्रु समस्त देह के अवयव थर - थर काँप उठे इस निज कुत्सित विचार से आया मैं बाहर उठे बोझिल कदम ध्वांत मैं विलोक फलक पर टिमटिमा रहा तारा वाही एक मात्र कर रहा था जो अकेला ही तम् परिहार ,मानो कह रहा हो मुझसे माँ के विश्वास पर धर विश्वास तू होगा प्रत्यस्त गमन इस अन्धकार का का एक दिवस आएगा हँसता हुआ नव विभात ,खिलखिलाती रश्मियों का होगा सतत् पर्यास " हाँ ठीक ही समझा मैं इस दूरागत विचार को माँ के ललाट को चूम कर उड़ा उसे शाँल जुट गया मैं सुखद भविष्य की कल्पना को साकार करने

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