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19.10.08

तुम्हारी उड़ान का पंख

मैं मिलूंगा
भीड़ में फीके, रंग उड़े
और रंग-बिरंगे चेहरों के बीच
पहचान वाली पगडंडियों पर

मैं जहां भी हूं, दूर तुमसे, दूर सबसे
दूर अपने को छिपा रखने के कई रोगों से
मैं जा रहा हूं पानी की शक्ल में
बुलबुला होता हुआ
हवा के आकार में बनता-बिगड़ता
पर मिलूंगा पानी से बाष्प होने के मध्य

धड़कनें गिनता हुआ मैं मिलूंगा
कुछ भी अशेष गुनगुनाता हुआ
धूप की तरह
किसी को भी उसकी पहचान कराता हुआ
जहां कहीं भी रहूंगा मैं
रहूंगा तुम्हारी उड़ान में पंख लगाता हुआ

स्मृतियों के धुंधलके में
तुम्हारी आवाज को सुनाता
फेरी वाले की जगह
गली-गली, चाहें रहूं किसी भी वेश-भाषा में
पर मिलूंगा तुम्हारे ही कारणों में।।
पवन निशान्त
http://yameradarrlautega.blogspot.com

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