साहिल थे कभी आज लहर हो गए हैं हम
इस जहाँ को सुधा दे ख़ुद ज़हर हो गए हैं हम।
आज हम ख़ुद को यहाँ ढूंढते फिरते रहे हैं
दुनिया की इस भीड़ में जाने कहाँ खो गए हैं हम।
हम जगाते थे जहाँ को रात और दिन जागकर
क्या हुआ जो आजकल ख़ुद भी सो गए हैं हम।
हमने ही लाशें बिछाई भूलकर सब रिश्तों को
याद करके उनको फ़िर क्यूँ आज रो रहे हैं हम।
जानवर थे हम कभी, आदमी फ़िर बन गए
आदमी से आज फिर जानवर हो गए हैं हम।
18.12.08
जानवर हो गए हैं हम...
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