मुंबई की लोकल ट्रेन में अब इंसानी फाटक लगे हुए हैं। ये फाटक न तो सरकार ने लगवाया है और न ही लोकल को सबसे ज्यादा रकम देने वाले वर्ल्ड बैंक ने लगवाया है। बल्कि उसमे रोजाना भेड़ बकरी की तरह यात्रा करने वाले यात्री ही अड़ जाते हैं। यूँ तो मुंबई में मैं पिछले कई सालों से पटखनी खाए पड़ा हुआ हूँ। और लोकल ट्रेन का मेरे साथ चोली दमन का रिश्ता है। इसलिए जब से मैंने मुसाफिरी करना शुरू किया है। तब से देख रहा हूँ कि लोकल ट्रेन में फाटक नहीं लगे हैं , जो भी यात्री होते हैं वो विण्डो शीत तलाशते हैं या फ़िर गेट में डटकर खड़े हो जाते हैं। ये लोग ४ से ५-६ यात्री होते है। और फ़िर फाटक की तरह काम करते है। फाटक में दो पल्ले होते हैं। जैसे ही स्टेशन आता है तो एक पल्ला खुल जाता है , जबकि दूसरा बंद रहता है। खुलने वाला पल्ला या तो स्टेशन में धंस जाता है, या फ़िर कुछ पल्ले ट्रेन में छिपकली की तरह चिपक जाते है। और तब बांकी लोग चढ़नाशुरू कर देते हैं। फ़िर जैसे ही ट्रेन चलती है तो फ़िर से दोनों पल्ले बंद हो जाते हैं। ट्रेन स्पीड पकड़ती है तो पल्ले नीचे ऊपर हिलने लगते हैं जब कि पल्ले के अन्दर के यात्रियों की हड्डियाँ राग भैरवी गाने लगाती है। कोई चिल्लाता है उफ , कोई कहता हाँथ हटा ,कोई कहता है हाथ ऊपर कर। इतना करते करते स्टेशन आ जाता है। और फ़िर पल्ले खुल जाते हैं और यात्री भरभरा कर स्टेशन पर कूद पड़ते हैं। इस तरह से मैंने देखा कि भारतीय लोकल रेल में कैसे हड्डी मांस के फाटक लगे हुए हैं , जिस्म के इस फाटक में अन्दर भी जिस्म ही कैद है।
11.12.08
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1 comment:
नटखट जी ज्यादा परेशान न हों बस हमारे डा.रूपेश श्रीवास्तव जी से संपर्क कर लीजिये तो हो सकता है कि वो आपको मोटरमैन के केबिन में बैठा कर घुमा लाया करें,यशवंत दादा को तो अपनी मुंबई यात्रा याद होगी:)
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