इस जहाँ को लग गई किसकी नज़र है,
कौन जाने यह भला किसका कहर है?
आदमी ही आदमी का रिपु बना है,
दो दिलों में छिडी यह कैसी ग़दर है?
ढूँढने से भी नहीं मिलती मोहब्बत,
नफरतों की जाने कैसी यह लहर है?
स्वार्थ ही अब हर दिलों में बस रहा,
यह हवा में घुल रहा कैसा ज़हर है?
हर तरफ़ हत्या, डकैती, राहजनी,
अमन का जाने कहाँ खोया शहर है?
मंजिलों तक जो हमें पहुँचा सके,
अब भला मिलती कहाँ ऐसी डगर है?
उदित होगा फिर से एक सूरज नया,
हमको इसकी आस तो अब भी मगर है।
20.12.08
इस जहाँ को लग गई किसकी नज़र...
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4 comments:
'उदित होगा फिर से एक सूरज नया,
हमको इसकी आस तो अब भी मगर है।' - इसी आशावादी सोच की जरूरत है.
'उदित होगा फिर से एक सूरज नया,
हमको इसकी आस तो अब भी मगर है।' - इसी आशावादी सोच की जरूरत है.
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