आजकल के नेता ढीठ हैं. उनको अगर कोई डर है तो ये कि किसी बात पर या बेबात ही, उनके राजनैतिक विरोधियों को, जोकि कहीं ज्यादा उनके ही दल में होते हैं बजाये अन्य दलों के, कोई मुद्दा न मिल जाये उनके खिलाफ़. और कभी यदि ऐसा हो जाये तो इनकी सिर्फ़ और सिर्फ़ यही कोशिश रहती है कि कैसे जवाब दें. इस पूरे खेल मे दो या उससे ज्यादा दलों मे बंटे हुये ये लोग मात्र आपस में ये सारा का सारा बवाल करते रहते हैं. मीडिया इस खेल को आम जनता को परोसता रहता है और इस प्रकार उसका अपना धन्धा चलता रहता है. य़े नेता लोग आम जनता के प्रति जवाबदेही को कोई अहमियत नहीं देते. इतना ही नहीं, आम जनता के जीवन की कीमत पर भी ये लोग अपना खेल बिना किसी भय या ग्लानि के जारी रखते हैं. ऐसा क्यों है जबकि हम ये समझते हैं कि आम जनता ही इनको बनाती है।
ये गलतफ़हमी है. आम जनता इन्हे बनाती नहीं, लेकिन बना सकती है. अभी हमारा समाज इतना समझदार नही हुआ कि वो ठीक से जान सके कि उसका अपना हित क्या है. चिन्तन की समझ ही नहीं पैदा होने दी गई आम जनता में. आज़ादी के बाद से, और पहले भी, सत्ता पर हुकूमत करने वालों की ये एक बहुत सीधी सी चाल रही है. इसके चलते आम जनता को बस सिर्फ़ इतना ही मुहैय्या कराया जाता है कि जिससे वो ज़िन्दा भर रहे, पढ लिखकर योग्य और विचारशील न हो जाये. एक ऐसी कौम को ज़िन्दा बनाये रखने की साजिश है जो कि सिर्फ़ इन नेताओं और उनके पूरे तन्त्र के लिये एक मेजोरिटी भर ही रहे, इनको सत्ता मे बनाये रखने के लिये ज़रूरी एक भीड़ मात्र. हम सौ करोड़ लोग मिलकर क्या अपने पूरे समाज के लिये न्यूनतम जरूरी वस्तुयें भी नहीं पैदा कर सकते, भोजन और शिक्षा जैसी चीजें! बिल्कुल कर सकते हैं लेकिन एक सोची समझी चाल के तहत ये नेता ऐसा होने देना नहीं चाहते. क्योंकि अगर सारी आम जनता पढ लिख कर समझदार हो जायेगी और अपना भला बुरा सोचने लगेगी तो इन नेताओं की इस पूरी की पूरी कौम को ही नकार देगी.
बहुत लोग नहीं हैं जो समझदार हों. इन लोगों में भी बहुत से लोग इतनी निराशा और ग्लानि से भर चुके हैं कि वे किसी भी तरह का दखल नहीं रखते आजकल की राजनीति में. न वोट देते हैं, न चुनाव लड़ते हैं और ना ही किसी प्रकार से किसी के समर्थन या विपक्ष मे किसी बहस का हिस्सा होते हैं. उनका यह व्यवहार स्वाभाविक है. वोट देते समय यदि इन नेताओं की करतूतों को ज़रा याद करे तो कौन वोट दे पायेगा. इतनी भ्रस्टाचार भरी व्यवस्था में कौन सम्मान जनक व्यक्ति चुनाव लड़ने की हिम्मत दिखा सकता है. और ऐसी मुश्किल भरी ज़िन्दगी मे रोज़ी रोटी कमाने से फ़ुर्सत निकाले कौन व्यर्थ की बहस करने को.
भ्रष्ट नेता और नासमझ जनता. नेता कभी समझ पैदा करने की भूल नहीं करेंगे आम जनता मे और आम जनता इन दुष्टों से हमेशा बरगलाई जायेगी और इस तरह चलता रहेगा ये दुष्चक्र. कोई आसान उपाय तो दिखता नहीं इस समस्या का. एक बार किसी न किसी तरह बड़ी क्रान्ति से इस चक्र को तोड़ना ही होगा. एक बड़ा ईलाज़. एक मुश्किल उपाय. ऊपर से पूरी व्यवस्था मे एक परिवर्तन.
कुछ बिन्दु विचार के लिये- अच्छे नेता चाहिये. बहुत समझदार और ज़िन्दगी से भरे हुये. कुछ बहुत अच्छा कर गुज़रने की चाह पाले हुये. हमेशा के लिये एक ऐसी व्यवस्था देने को तत्पर जो मानवता का भविष्य बदल दे. मौज़ूदा हालात मे तो ये होने से रहा. आम चुनावों द्वारा संसद मे लाये जाने की प्रक्रिया मे ही बदलाव की ज़रूरत है. कुछ प्रस्ताव चिन्तन के लिये प्रस्तुत हैं-
१. कुछ वर्षों के लिये आम जनता के वोट देने के संवैधानिक अधिकार मे परिवर्तन: कुछ कक्षा तक पढाई अनिवार्य हो वोट देने के लिये. य़ा अनपढ लोगों के लिये वोट देने की आयु ज्यादा हो, जैसे कि ५० वर्ष के ऊपर के ही अनपढ लोग वोट कर सकें. और फ़िर सब लोगों के वोट का महत्व (weightage) भी भिन्न हो, पढाई, योग्यता, अनुभव और आयु के आधार पर. जैसे कि ज्यादा योग्य या अनुभवी या पढे हुये का वोट किसी अनपढ के मुकाबले दो या तीन गुना गिना जाये. और यह सब कुछ एक समय बद्ध जैसे कि २० वर्षों के लिये.
२. चुनाव लड़ने के लिये न्यूनतम शिक्षा: एक न्य़ूनतम सीमा तय हो. फ़िर शिक्षा, अनुभव और योग्यता के आधार पर चुनाव मे खडे लोगों का मूल्यांकन अलग अलग हो. जैसे कि अगर एक दसवीं पास दुकानदार व्यक्ति के विरोध मे एक बड़ा वैग्यानिक हो तो वैग्यानिक को कम मतों की जरूरत हो जीतने के लिये. यानि अगर कोई कम अनुभवी, शिक्षित या योग्य है और उसे बहुत ज्यादा संख्या मे लोग वोट करें तभी वो जनता का प्रतिनिधि माना जाये।
३. उच्च राजनीतिक पदों और पदोन्नति के लिये व्यवस्था: मन्त्री बनने के लिये भी योग्यता और शिक्षा एक अनिवार्यता हो. ज्यादा महत्वपूर्ण मन्त्रालय ज्यादा योग्य को मिलें. और इस व्यवस्था मे पदोन्नति की भी व्यवस्था वैसी ही जो जैसी नौकरियों मे होति है. ईम्तेहान भी हों।
४. ज्यादा योग्य लोगों का सीधे नामांकन: राज्य सभा मे कुछ लोग बिना चुनाव के रखे जाते हैं राष्ट्र्पति द्वारा. इनकी संख्या बहुत ज्यादा होनी चाहिये. और ऐसे ही लोक सभा मे भी लोग जायें. ऐसे प्रतिनिधियों को सरकार चुनने मे न भी शामिल करें तो ठीक है. यानि अगर १०० लोग ऐसे हैं लोक सभा में और बाकी ४२० चुनाव से आये हैं तो सरकार उस पार्टी की हो सके जिसके पास २१० से ज्यादा लोग हों।
सभी बिंदुओं मे चार मुख्य चीज़ों के आधार पर अलग अलग महत्व हो वोट देने वालों, प्रतिनिधियोम और मन्त्रियों के लिये, आयु, शिक्षा, विशेष योग्यता और अनुभव. भहुत संक्षेप मे ये बिन्दु यहाँ रखे गये हैं और इन पर चिन्तन करके, बहस करके विस्तार की आवश्यकता है।
इस तरह से चुनी हुइ सरकारें ज्यादा काम की होंगी और पूरा देश जल्दी ही पढ लिखकर समझदार हो सकेगा और फ़िर सबको वापस चुनने और चुने जाने का अधिकार बराबर बिना किसी भेदभाव के दिया जा सकेगा.
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