किसी बेहद घिसे सिक्के सा
सारूप्यता खो चुका है मेरा चेहरा
पिघल गई है मेरी रीढ़
रूपांतरित हो गया है श्वेत प्रदर में
सारा शोणित
फटी-पुरानी धोती सा स्वत्व
फ़ेंक दिया है धुरे के ढेर पर
निरंतर पीठ पर न बरसें कोड़े
तो सहज लगता ही नहीं मुझे
रिरियाता हूँ नाक रगड़
लुढ़का दो मुझे मार-मार ठोकर
रौंदो-कुचलो चरणों तले
कि सात समंदर पार का मायावी जादूगर
जब तक न फेंके मेरे आगे बासी जूठन
मेरे हाथ-पांवों होती ही नहीं कोई हरकत
निराशा और हीनता की रोटियों को
पलायन की मदिरा में तर करके
न परोसा जाए मुझे
तो जड़ हो जाती है मेरी पाचन-शक्ति
सब आदर्श सजा दिए हैं
आल्मारी में अजूबों से
और मेरी व्यावहारिकता
खोजती है शरण
जंघाओं के मध्य
फूलों के सौरभ के सोच मात्र से
भय तथा आशंका की शीत लहर में
जकड़ जाती है मेरी पंकभोगी आत्मा
कि प्यारे पिल्लों की भाँती पाले गए
सदियों के बौने संस्कारों की
चटकारे ले लेकर की जा रही
जुगाली का आल्हाद
कहीं छीन न जाए मुझसे
बड़ी कठिनाई से बनाई है मैंने
अपनी देह पर
मेल की यह मोटी परत
मुझे भय है कि निर्मल जल की धार से
कहीं लुप्त न हो जाए
यह सुरक्षा कवच
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