प्रतिबद्ध नौकरशाही प्रशासन की ऐसी शक्ल बन कर रह गयी है,जैसे किसी श्रंगार कवि की कल्पना की प्रेयसी।रूपवती,गुनवंती होते हुये भी साकार होते ही वह मायाजाल में उलझ जाती है। प्रेयसी का आशिक अपनी लाख कोशिशें के बाबजूद वैसा नहीं पाता जैसी उसने कल्पना की थी।यानि की समर्पण व प्रतिबद्धता का पूर्ण अभाव।नौकरशाही में प्रतिबद्धता आज के समय मे मजबूत तो हुयी है लेकिन वह नेताओं के प्रति या हम कह सकते हैं कि दलगत राजनीति के प्रति प्रतिबद्धता ज्यादा मजबूत हुयी है। कुद ज्यादा घुटे-मंझे नौकरशाह व्यक्तिवादी प्रतिबद्धता में निपुण हैं,इनका मानना है कि इस तरह आप किसी भी दल के शासन में ज्यादा अच्छी पोस्टिंग पाने के लायक हो सकते हैं।क्योंकि अच्छे नेताओं के हरेक दल के अच्छे नेताओं से सम्बध होते हैं,जहॉं से आप काम निकाल सकते हैं। लेकिन प्रतिबद्ध नौकरशाही के अभाव ने देश के विकास में सबसे ज्यादा अडंगा डाला है। भारतीय लोकतंत्र के सबसे निचले पायदान पंचायतों पर निगाह डालिये तो आप पायेंगें कि यहॉं का पूरा खेल ऑंकडों का खेल बना कर रख दिया गया है।पंचायतो के स्वरूप से लेकर कार्यप्रणाली तक केवल दिखावा रह गया है। - चुनी हुयी महिला प्रतिनिधियों की किसी भी निर्णय में कोई भी भूमिका नहीं है।- किसी भी सरकारी योजना जैसे-पेंशन,मुफत बोरिंग,इंदिरा आवास एवं अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लिये कभी किसी खुली बैठक का आयोजन नहीं किया जाता है।- मनरेगा जैसा कार्यक्रम बंदरबांट की भेंट चढ रहा है। प्रखंड कार्यालय का सचिव प्रधान के साथ मिलकर दस की जगह सौ मजदूरों को काम पर दिखाकर उनका भुगतान प्राप्त कर लेता है एव बडाकर दिखाये मजदूरो को मुफत में कुछ हिस्सा देकर मामला रफा दफा कर दिया जाता हैं।- ग्राम पंचायत स्तर पर राशन कोटे पूरी तरीके से भ्रष्टाचार की भेंट चढ रहें हैं। क्या आपने कभी किसी ऐसे कोटेदार को देखा है,जिसने पूरा राशन,चीनी,व कैरोसीन सही मात्रा में बॉंटा हो।या किसी गॉव में कोई साधारण व सज्जन आदमी कोटेदार हो। केवल रसूखदार,व दबंग किस्म के आदमी ही इसके लिये सही पाये जाते हैं। यहॉं कोटों की उलटफेर शासन के अनुसार होती है।- गॉव में नेतागीरी जमाने की सादा तरकीब बदस्तूर जारी है।गॉव के पुलिस थाने यह काम सदियों से करते आ रहें है।थाने की पुलिस गॉव के खेत-मेढ विवाद,नाली-चकरोड विवाद,पशु-चोरी विवाद आदि विवादों में जमकर दलालों के माध्यम से पैसा लेकर मामले निपटा रही है।और चुनी हुयी पंचायतें मूकदर्शक बनी हुयी हैं। वास्तव में पुलिश की दलाली करने वाले ही नेता बने हुये हैं।- गॉव के किसी भी सरकारी भवन व सामुदायिक भवन का उपयोग गॉव-सभा की बैठकों के लिये नहीं होता।- ग्राम पंचायत के किसी भी सदस्य की इतनी हिम्मत नहीं है कि वह लेखपाल को बुलाकर खेत की नाप-जोख करा सके।चाहे अगले ही दिन मेढ विवाद में दो चार के सिर फूट जांय।- शासन का पूरा जोर अंबेदकर गॉंव के विकास पर है। शेष गॉंव अपने दुर्भाग्य पर रो रहें हैं।वहॉं की शिकायतो के निस्तारण का कोई प्रोपर चैनल नहीं है।तहसील दिवस,थाना दिवसों में भी अर्जी लगाने से ज्यादा कुछ नहीं हो रहा है।- बची-खुची कसर गॉंव में बैंक पूरी कर दे रहें हैं। बिना दलाल के किसी भी आदमी को इतने चक्कर कटा देते हैं कि आम आदमी मजबूर होकर दलालों के शिकंजे में फंस जाता है। मनरेगा के सिवाय कभी किसी बैंक में एकाउंट खोलने का भी अनुभव अत्यंत पीडादायक हो सकता है। ऐसे अनेक पहलू हैं,जिन्हें आप एक दिन गॉव में रहकर अनुभव कर सकते हैं। ऐसे में संविधान का 73 वॉं संशोधन क्या गॉव को निर्णय के केन्द्र बना पायेगा ,कहना कठिन है।हो सकता है नेहरू ने कभी सपना देखा हो कि ग्राम पंचायतों को स्वंय निर्णय करने का आदी बनने दो एक न एक दिन गलती करते-सुधरते वे असली लोकतंत्र की नींव बन ही जायेंगें।लेकिन हमें अभी विकास के प्रति प्रतिबद्ध होना सीखना है।सही मायने में हमने जो ग्राम स्वराज का सपना देखा था उसको साकार करने के लिये एक प्रतिबद्ध नौकरशाही की जरूरत है। तभी सुंदर भारत की संकल्पना पूरी हो सकेगी।
23.7.10
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment