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1.10.08

कहें, करार के लिए थैंक्यू बुश?

बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का पहला कार्यकाल जिस करार के इर्द-गिर्द घूमता रहा है वह अब मूर्त रूप लेने जा रहा है। देश की परमाणविक ऊर्जा को बुनियादी फायदे के साथ ही मनमोहन की महत्वाकांक्षा और करार के प्रति प्रतिबद्धता भी इतिहास के पन्नों मे उकेर दी जाएगी। 34 सालों बाद रिवोक परमाणु तकनीक व्यापार का पासपोर्ट हाथ में आया है तो स्वाभाविक है कि भारत और अमेरिका दोनों देशों को प्रशासनिक अमले के प्रयासों को सराहा जा रहा है। ये अलग बात है कि विएना में आईएईए की बैठक में दुनिया के दरोगा का रुतबा ही करार को पार कर ले गया। सारी कसरत और हरारत में दीगर बात यह रही कि भारतीय राजनयिकों के प्रयास तो बेमानी ही रहे। विएना में ट्रॉइका से लेकर प्रतिनिधि सभा तक भारतीयों की एक न चली। केवल बुश और उनका प्रशासनिक अमला ही करार पर रार को खत्म कराने में कामयाब रहा। ऐसे हालात में प्रधानमंत्री को बुश का एहसानमंद तो होना ही था। हम तो एकमात्र पड़ोसी चीन की चिरौरी करके भी उसे नहीं मना पाए। हमारी सारी सरकारी कोशिशें दोयम दर्जे की ही साबित हुईं। ये अलग बात है कि हम इसे स्वीकार न करें और करार को विश्व मंच पर अपनी जिम्मेदाराना छवि की बदौलत मिली सौगात कहते रहें। करार में अब भी कुछ ऐसे तथ्य हैं जिन्हें भारत को नहीं मानना चाहिए। अमेरिका भारत को परमाणु प्रोसेसिंग का हक बिल्कुल नहीं देगा। करार के आलोचक और वरिष्ठ कानूनविद सीनेटर हॉवर्ड बर्मन ने इसी बात पर सहमत होकर करार पारित करने को हामी भरी है। इस मामले पर साउथ ब्लॉक में गुपचुप हड़कंप का माहौल है। कुछ भी हो, करार अमेरिका के ही प्रयासों से अमलीजामा पहने पर भारत का तो फायदा ही है। अमेरिका और फ्रांस के दौरे से वापस लौटे मनमोहन सिंह और देश के लिए बड़ी कामयाबी का मौका है। करार पर मुहर लगने के बाद अभी लंबे इंतजार के एक और दौर से गुजरना होगा। रिएक्टर हासिल करने के लिए निजी कंपनियों से एग्रीमेंट साइन करने के बाद ही कुछ हो सकेगा। करार के कील कांटे चाहे बिखरे पड़े हों, कितने ही लोच हों लेकिन भारतीय खेमे ने इसको ऐसे ही मान लिया है। हाइड एक्ट की फांस भरे इस रसगुल्ले को गटकने में थोड़ी दिक्कत तो होगी लेकिन परमाणु ऊर्जा के लाब को अनदेखा नहीं किया जा सकता। यहां काबिले गौर यह है कि जिन जिम्मेदारी भरी नीतियों पर हम खम ठोंकते हैं वह नीतियां अमेरिकी टैग के साथ ही विश्व ने पहचानी हैं। ऐसे में तो इतना ही कहा जा सकता है कि भारतीय राजनेता तो बस करार पर आम सहमति बनाने का दिखावा भर कर रहे थे। सुदूर भविष्य में अगर सब ठीक चलता है तो मनमोहन सिंह का अंकल सैम के लिए एहसानमंद होना ज़ाया नहीं जाएगा और शायद एक दिन हम भी यही कहें, ‘थैंक्यू बुश’!

2 comments:

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

bat sahi hai

Anonymous said...

थैंकयू बुश अंकल