बड़ाबाजार में आग लगी तो अखबारों के पन्नों पर कोलकाता के मारवाड़ी व्यवसायी समाज के कोलकाता में व्यवसाय शुरू करने से लेकर सुरक्षा की दृष्टि से बड़ाबाजार के सारे कच्चे-चिट्ठे छपने लगे। सरकार ने भी हर मदद का आश्वासन दिया तो कुछ व्यवसायियों ने मदद की जगह कर्ज की अपील की। इसके पीछे उनकी मंशा व वह आत्मविश्वास दिखा जिसकी बदौलत इस समाज ने खुद को सिर्फ कोलकाता नहीं बल्कि पूरे पूर्वी भारत में स्थापित कर लिया है। लेकिन कोलकाता के इस मारवाड़ी समाज की क्या व्यथा है ? और किन भ्रांतियों के आलोक में लोग इन्हें जानते हैं, यह भी कई लोगों की कौतूहल का विषय बना। आज आग में स्वाहा हो चुके तोड़े जा रहे नंदराम मार्केट का एक हिस्सा टूटने से एक मजदूर जख्मी हुआ । मलबा हटाया जा रहा है और उसी के साथ बड़ाबाजार प्रकरण पर लिखा जाना भी बदस्तूर जारी है। भूलभुलैया गलियों के बीच व्यस्त और संपन्न बड़ाबाजार पर मारवाड़ियों का प्रतिनिधित्व करने वाली कोलकाता की प्रमुख पत्रिका समाज विकास के हवाले से आग से लेकर मारवाड़ियों की पहचान तक पर एक लेख शंभू चौधरी ने लिखा है। यह हिंदीभाषा ग्रुप के मेल के माध्यम से मुझे भी मिला है। इसके लेखक ( -शम्भु चौधरी, पता: एफ.डी:- 453, सल्टलेक सिटी,कोलकाता-700106) ने मारवाड़ियों की प्रमुख पत्रिका समाज विकास के मेल से भेजा है। ब्लाग पर इसे इस आशय से डाल रहा हूं ताकि आप भी इनकी नजर से बड़ाबाजार और मारवाड़ियों को देख सकें। हालांकि बड़ाबाजार में आग को व्यंग्य करार दिया है मगर बात काबिलेगौर और रोचक है। आखिरी पैरे में पत्रकारों पर भी इन्होंने गंभीर टिप्पणी की है। देखिए---
व्यंग्य :बड़ाबाजार में आग तो रोज लगती है!
वाममोर्चा सरकार एक तरफ 30 वर्षों की अपनी सफलता का जश्न मना रही थी,
दूसरी तरफ दमकल कर्मी खतरे की घंटी बजाना बन्द कर रैली के पीछे-पीछे
सरकते जा रहे थे, और बड़ाबाजार धू-धू कर जलता रहा। संवेदनशील विचारधारा
के धनी मुख्यमंत्री माननीय श्री बुद्धदेव बाबू की ज़ुबान राज्य के 100 से
कम कट्टरपंथियों के आगे लडखड़ा गयी। परन्तु बिग्रेड मैदान में खूब जमकर
बोले राज्य की तरक्की के लिये उद्योगपतियों की सराहना की और कहा कि राज्य
में उद्योग लगाने के लिये कई देशी-विदेशी प्रस्ताव सरकार के पास आयें
हैं, उन्होंने माना कि बाम विचारधारा और प्रगति एक साथ नहीं चल सकती, तीस
साल बाद बामपंथियों को यह बात समक्ष में आयी, यही एक अच्छी बात है,
सर्वहारा वर्ग के मसिहा होने का ढींढोरा पिटने वली वाममोर्चा की सरकार,
किसानों की हत्याकर, उद्योग बैठायेगें यह बात गले नहीं उतरती, मुक्षे
क्या किसी भी वाम विचारधारा को नजदिक से जानने वाले को भी नहीं उतरेगी।
किसानों की उपजाऊ जमीन को गैरकानूनी तरिके से अधिकृत कर उद्योगपतियों को
औने-पौने दाम में बैच देना, नंदीग्राम के खेतिहर मजदूरों को मौत के घाट
सुला देना, कोई इनसे सीखे। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की जुबान पर
नपे-तुले शब्द थे, राज्य की प्रगति बस ! दूसरी तरफ एक कोस की दूरी
बड़ाबाजार में व्यापारियों का सबकुछ जलकर खाक हो रहा था, सारा का सारा
प्रशासन इस बात के लिये लगा था कि, मुख्यमंत्री महोदय को धूआं न लग जाये।
राज्य के वित्तमंत्री श्री असीमदास गुप्ता को छोड़कर सभी मंत्री
मकरसंक्रांति की ठण्ड में अपने-अपने घरों में वातानुकुलित शयनकक्ष का
आनन्द उठा रहे थे। वेतुके शब्दों की राजनीति करने वाले श्री विमान बोस
जिस तरह तस्लीमा के लिये अपनी जीभ हिला सकते थे, थोड़ा बहुत बड़ाबाजार
के व्यापारियों के प्रति भी हिला पाते तो कुछ सुकून मिलता, लेकिन
बामपंथी स्वभाव ने इनके हमदर्दी भरे शब्दों को भी जात और धर्म में वांट
रखा है, समाज के अन्दर असभ्यता फैलाने वाले एक शिक्षक जिसने अपनी एक
छात्रा को बहला-फुसला कर निकाह कर प्रेम का जामा पहनाया, जिसे राज्य के
स्पीकर हालीम साहेब ने राजस्थान की याद दिलाते हुये इस अपराध को नई
पीढ़ी का परिवर्तन बताया, राज्य के मुख्यमंत्री एक आम घटना पर उसके घर
जाकर सहानुभुति बटोर आये, शायद इसलिये कि मामला एक धर्मविशेष से जुड़ा
था, वाम विचारधारा को मानने वाले मेरे जैसे अनेक स्वतंत्र लोगों को तब
घोर आश्चर्य हुआ, जब 30 वर्षों से जो दल आम के फल को खट्टा बता कर , जी
भर कर कोसते रहे, आज उसी फल के गुण बताते नहीं थकते। हर मंत्री यहां तक
एक जमाने में पाँच पैसे भाड़े में वृद्धी को लेकर शहर की कई ट्रामों को
आग के हवाले कर देने वाले माननीय ज्योति बसु भी इस बात से सहमत नजर आये,
पूरे बंगाल के कल-कारखाने जब नरकंकाल बन चुके तब जाकर इनको, इस बात का
ख्याल आया कि इन नरकंकालों में अब भी थोड़ी जान बची है, जिससे राज्य का
विकास संभव है।
बड़ाबाजार आग की लपटें देशभर में फैल चुकी थी, परन्तु 100 गज की दूरी पर
खड़े राइटर्स भवन की लाल दीवारें इतनी शख्त विचारों की बनी है कि उस भवन
में बैठे मंत्री के चेम्बर तक नहीं पहूंच पाई। नगरनिगम के कर्मी और
कोलकाता के मेयर श्री विकास रंजन भट्टाचार्य बाबू और इनके प्यादे यह
बताने में लगे थे कि बड़ाबाजार की सारी इमारते गैरकानूनी है, कहने का
अर्थ यह था कि बंगाल में सिर्फ बड़ाबाजार में ही गैरकानूनी निर्माण होता
है, आग बुझे इस बात की चिन्ता किसी भी निगमकर्मी को नहीं थी, सारा का
सारा कॉरपोरेशन इस बात को लेकर परेशान था, कि यदि कोई कानूनी रूप से सही
भवन को आग लग जायेगी तो उसे भी गैरकानूनी कैसे साबित किया जाय सके।
राज्य में राजस्थान का एक तीन सदस्यी मंत्रियों का एक दल घटनास्थल का
निरक्षण करने राजस्थान से पहुंच गया, राज्य के दमकल मंत्री से मिलने उनके
कार्यलय भी गये, परन्तु राज्य के दमकल मंत्री श्री प्रतिम चटर्जी आग
बुझाने में इतने व्यस्थ थे कि इनके पास मिलने का भी वक्त नहीं था, भला हो
भी क्यों, विचारधारा का भी तो सवाल था, सांप्रदायिक लोगों से मिलकर अपनी
छवी को खराब करनी थी क्या? राजस्थान सरकार को सोचना चाहिये कि वह इसकी
दुश्मन नम्बर एक है, पहले ही तस्लीमा को लेकर राजस्थान ने आग में घी का
काम किया, उनका एक नुमांइदा जो समाज को किस तरह से नीचा करे की दौड़ में
लगा है, जिसके चलते पहले ही बंगाल के समाचार पत्रों ने जी भरकर गाली दे
डाली, राजस्थान के मंत्री आने से आग कितनी बुझी यह तो वक्त ही बतायेगा,
हां बामपंथियों के दिल में आग जरूर लग गय़ी। अब भला सच ही तो है, दमकल
मंत्री क्या केवल यही इंतजार करता रहेगा कि कब और कहां आग लगे, और भी तो
उनके पास बहुत सारे काम हैं, आपलोग खामांखा हो हल्ला करते रहिये।
बड़ाबाजार में आग लग गयी तो क्या हुआ, तपसीया, या न्यूमार्केट में तो आग
नहीं लगी है, जो बाममोर्चा के चिन्ता कारण बनती। बड़ाबाजार में तो यूँ ही
रोजना आग लगती रह्ती है, कभी प्याज के दाम में , तो कभी अनाज के दाम में,
दमकल मंत्री है, कोई खाद्यमंत्री तो है नहीं, जो बार-बार आप आग लगाते
रहिये और ये आकर बुझाते रहे। मछली य चमड़ा बाजार होती तो फिर भी सोचने की
बात थी, त्रिपाल पट्टी, कपड़ा बाजार था। आग तो लगना ही था। यह तो एहशान
है कि वे आग बुझाने आ गये, वर्ना आप क्या कर लेते।
उधार की जिन्दगी
आज एक महत्वपूर्ण प्रश्न मारवाड़ी समाज के साथ जुड़ सा गया है। - क्या वह
उधार की जिन्दगी जी रहा है, या किसी के एहशान के टूकड़ों पर पल रहा है?
या फिर किसी हमदर्दी और दया का पात्र तो नहीं? मारवाड़ी समाज का प्रवासीय
इतिहास के तीन सौ वर्षों के पन्ने अभी तक बिखरे पड़े हैं। न तो समाज के
अतीत को असकी चिंता थी, नही वर्तमान को इसकी फिक्र। घड़ी की टिक-टीक ने
इस सन्नाटे में अचानक हलचल पैदा कर दी है। - विभिन्न प्रन्तों में हो रहे
जातिवाद, आतंकवाद, साम्प्रदायिकता की आड़ में मारवाड़ी समाज के घ्रों को
जलाना एवं लूट लेना । साथ ही, राजनैतिक दलों का मौन रहना, मुगलों के
इतिहास को नए सिरे से दोहराते हुए स्थानीय आततायियों के रूप में
मौकापरस्त लोग एसी हरकतों से कुछ सोचने पर मजबूर कर देते हैं।
'जडूला' या 'गठजोड़
यह प्रश्न आज के परिप्रेक्ष्य में हमारे मानस-पटल पर उभर कर सामने आता है
कि अपने मूल स्थान से हमने जन्म-जन्मान्तर का नाता तोड़-सा लिये। पहले तो
समाज के लोग साल में एक दफा ही सही 'देस' जाया करते थे। अब तो
बच्चों को पता ही नहीं कि उनके पूर्वज किस स्थान के थे। एक समय था जब
'जडूला' या 'गठजोड़ की जात' देस जाकर ही दिया जाता था, समाज में कई ऎसे
उदाहरण हैं, जिसमें बाप-बेटा और पोता, तीनों का 'जडूला' और 'गठजोड़ की
जात' एक साथ ही 'देस' जाकर दी । यहाँ यह कहना जरूरी नहीं कि हमारा अपने
मूल स्थाना से कितना गहरा संबंध रहा और कितना फासला है। इन दिनों
'जडूला' तो स्थानीय प्रचलन एवं मान्यताओं से जूड़ती जा रही है। जो जिस
प्रदेश में या देश में है, वे उस प्रदेश या देश के अनुकुल अपनी-अपनी अलग
प्रथा बनाते जा रहे हैं, आने वाली पीढ़ी का अपने मूल प्रदेश से कितना
मानसिक लगाव रह जायेगा, इस पर संदेह है। वैसे भी एक स्थति और भी है,
वर्तमान को ही देखें - 'मारवाड़ी कहने को तो अपने आपको रास्थानी मानते
हैं,परन्तु राजस्थान के लोग इसे मान्यता नहीं देते। यदि कोई प्रवासी
राजस्थानी वहाँ जाकर पढ़ना चाहे तो उसे राजस्थानी नहीं माना जाता।
क्योंकि उसका मूल प्रान्त राजस्थान नहीं है। यह कैसी व्यवस्था ? असम ,
बंगा़ल, उडिसा जैसे अहिन्दी भाषी प्रान्त इनको प्रवासी मानते हैं, और
राजस्थान इनको अपने प्रदेश का नहीं मानता। असम में असमिया मूल के छात्र
को और राजस्थान में राजस्थान मूल के छात्रों को ही दाखिला मिलेगा तो यह
कौम कहाँ जाय?
प्रान्तीय भाषा
मुड़िया में मात्रा की कमी के चलते हिन्दी भाषा के साथ-साथ अन्य प्रन्तीय
भाषाओं ने इस प्रवासी समाज के अन्दर अपना प्रमुख स्थान ग्रहन कर लिया ।
कई प्रवासी मारवाड़ी परिवार ऎसे हैं जिनको सिर्फ बंगला, असमिया, तमील, या
उड़िया भाषा ही लिखाना, बोलना और पढ़ना आता है, कई परिवार में तो
राजस्थानी की बात तो बहुत दूर उनको हिन्दी भी ठीक से बोलना-पढ़ना नहीं
आता, लिखने की कल्पना ही व्यर्थ है।
पर्व-त्यौहार
बिहार में 'छठ पूजा' की बहुअत बड़ी मान्यता है,ठीक वैसे ही बंगाल मैं
'दुर्गा पूजा', 'काली पूजा', असम में 'बिहू उत्सव', महाराष्ट्र में 'गणेश-
महोत्सव, उड़ीसा में 'जगन्नाथ जी की रथयात्रा', दक्षिण भारत में 'ओणम-
पोंगल', राजस्थान में होली-दिवाली, गुजरात में डांडीया-गरबा, पंजाब में
'वैशाखी उत्सव' आदि पर्व व त्योहरों की विषेश मान्यता है, असके साथ ही
हिन्दू धर्म के अनुसार कई त्योहार मनाये जाते हैं जिसमें राजस्थान में
विषेशकर के राखी, गणगोर की विषेश मान्यता है, गणगोर तो राजस्थान व
हरियाणावासियो का अनुठा त्योहार माना जाता है। जैसे-जैसे मारवड़ी समाज के
लोग इन प्रान्तों में बसते गये, ये लोग अपने पर्व के साथ-साथ स्थानीय
मान्यताओं के पर्व व त्योहारों को अपनाते चले गये। बिहार के मारवाड़ी तो
छठ पूजा ठीक उसी तरह मानाने लगे, जैसे बिहार के स्थानीय समाज मानाते हैं
यहाँ यह बताना जरूरी है कि जो मारवाड़ी परिवार कालान्तर बिहार से उठकर
किसी अन्य प्रदेश में बस गये, वे आज भी छठ पूजा के समय ठीक वैसे ही बिहार
जाते हैं जैसे बिहार के मूलवासी इस पर्व को मनाने जाते हैं। अब विवशता यह
है कि राजस्थान के बिहार के मारवाड़ी को बिहारी, असम के मारवाड़ियों को
असमिया, बंगाल व उड़ीसा के मारावाड़ियों को बिहारी, बंगाली, असमिया, या
उड़िया समझते हैं, एवं स्थानीय भाषायी लोग मारवाड़ियों को राजस्थानी
मानते हैं। विडम्बना यह है,कि मारवाड़ी कहने को तो रजस्थानी है, परन्तु
राजस्थान के लोग इसे राजस्थानी नहीं मानते।
लोगों का भ्रम:
आम तौर पर लोगों को यह भ्रम है कि मारवाड़ी समाज एक धनी-सम्पन्न समाज है,
परन्तु सच्चाई इस भ्रम से कोसों दूर है। यह कहना तो संभव नहीं कि
मारवाड़ी समाज में कितने प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, हाँ ! धनी
वर्ग का प्रतिशत इतर समाज के अनुपात में नहीं के बराबर माना जा सकता है।
उद्योग-व्यवसाय तो सभी समाज में कम-अधिक है। प्रवासी राजस्थानी, जिसे
हम देश के अन्य भागों में मारवाड़ी कह कर सम्बोधित करते हैं या जानते
हैं, अधिकतर छोटे-छोटे दुकानदार या फिर दलाली के व्यापार से जुड़े हुए
हैं, समाज के सौ में अस्सी प्रतिशत परिवार तो नौकरी-पेशा से जुड़े हुए
हैं, शेष बचे बीस प्रतिशत का आधा भा़ग ही संपन्न माना जा सकता है, बचे दस
प्रतिशत भी मध्यम श्रेणी के ही माने जायेगें। कितने परिवार को तो दो जून
का खाना भी ठीक से नसीब नहीं होता, बच्चे किसी तरह से संस्थाओं के सहयोग
से पढ़-लिख पाते हैं। कोलकाता के बड़ाबाजार का आंकलन करने से पता चलता है
कि किस तरह एक छोटे से कमरे में पूरा परिवार अपना गुजर-बसर कर रहा है।
इस समाज की एक खासियत यह है कि यह कर्मजीव समाज है, मांग के खाने की जगह
कमा कर खाना ज्याद पसंद करता है, समाज के बीच साफ-सुथरा रहना अपना
कर्तव्य समझता है, और कमाई का एक हिस्सा दान-पूण्य में खर्च करना अपना
धर्म। शायद इसलिए भी हो सकता है इस समाज को धनी समाज माना जाता हो, या
फिर विड़ला-बांगड़ की छाप इस समाज पर लग चुकी हो। ऎसा सोचना कि यह समाज
धनी समाज है, किसी भी रूप में उचित नहीं है। आम समाज की तरह ही यह समाज
भी है, जिसमें सभी तबके के लोग हैं , पान की दुकान, चाय की दुकान, नाई ,
जमादार, गुरूजी(शिक्षक), पण्डित जी (ब्राह्मण), मिसरानी ( ब्राह्मण की
पत्नी), दरवान, ड्राईवर, महाराज ( खाना बनाने वाले), मुनीम (खाता-बही
लिखने वाला) ये सभी मारवाड़ी समाज में होते हैं इनकी आय भारतीय मुद्रा के
अनुसार आज भी दो - तीन हजार रूपये प्रतिमाह (कुछ कम-वेसी) के आस-पास ही
आंकी जा सकती है। यह बात सही है कि समाज में सम्पन्न लोग के आडम्बर से
गरीब वर्ग हमेशा से शिकार होता आया है, यह बात इस समाज पर भी लागू होती
है।
आडम्बर:
मारवाड़ी समाज के एक वर्ग को संपन्न समाज माना जाता है, इनके कल-कारखाने,
करोबार, उद्योग, या व्यवसाय में आय की कोई सीमा नहीं होती, ये लो़ग जहाँ
एक तरफ समाज के सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते पाये जाते
हैं वहीं दूसरी तरफ अपने बच्चों की शादी-विवाह, जन्मदिन का जश्न मनाने
में, या सालगिरह के नाम पर आडम्बर को भी मात देने में लग जाते हैं, उस
समय पता नही इतना धन कहाँ से एकाएक इनके पास आ जाता है, जिसे पानी की तरह
बहाने में इनको आनन्द आता है, अब कोलकाता में तो बहार से आकर शादी करना
एक फैशन सा बनते जा रहा है, बड़े-बड़े पण्डाल, लाखों के फूल-पत्ती, लाखों
की सजावट, मंहगे-मंहगे निमंत्रण कार्ड, देखकर कोई भी आदमी दंग रह जायेगा।
सबसे बड़ा हास्यास्पद तब लगता है, जब कोई समाज की सभाओं में इन आडम्बरों
के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें तो करता है, जब खुद का समय आता है तो यही
व्यक्ति सबसे ज्यादा अडम्बर करते पाया जाता है। एक-दो अपवादों को छोड़
दिया जाय तो अधिकांशतः लोग समाज के भीतर गन्दगी फैलाने में लगे हैं। इनका
इतना पतन हो चुका है कि इनको किसी का भय भी नहीं लगता। समाज के कुछ दलाल
किस्म के हिन्दी के पत्रकार भी इनका साथ देते नजर आते हैं। चुंकि उनका
अखबार उनके पैसे से चलता है इसलिये भी ये लाचार रहतें हैं, दबी जुबान
थोड़ा बोल देते हैं परन्तु खुलकर लिखने का साहस नहीं करते। इन पत्रकारों
की मानसिकता इतनी गिर चुकी है कि, कोई भी इनको पैसे से खरिद सकता है,
भाई ! पेट ही तो है, जो मानता नहीं। अखबार इनलोगों से चलता है, इनका घर
इनकी दया पर चलता है, तो कलम का क्या दोष वह तो इनके दिमाग से नहीं इनके
हाथ से चलती है।
इन पत्रकारों के पास न तो कलम होती है, न ही हाथ य लुल्ले पत्रकार होते
हें , इनके पास सिर्फ कगज छापने की एक लोहे की मशीन भर होती है, बस ,
भगवान ही इनका मालिक होता है, दिमाग भी इतना ही दिया कि ये बस मजे से खा
सकते हैं। इनका समाज में किसी भी प्रकार का सामाजिक दायित्व नहीं के
बराबर है।
4.2.08
बड़ाबाजार की आग, मारवाड़ी और पत्रकार
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डा०सिंह साहब,आजकल लोग शर्म प्रूफ़,गाली प्रूफ़,जूता प्रूफ़ और लात प्रूफ़ हो चके हैं अगर आप कुछ लिखते हैं तो बस देख लेते हैं ;पढ़ते नहीं और अगर दैवयोग से पढ़ लिया तो उस पर विचार नहीं करते कि एक आदमी क्यों साला कलम तोड़े पड़ा है,आखिर क्या बताना चाहत है । पता नहीं नींद में हैं या नशे अथवा बेहोशी में इन पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जब आप जैसे लोग दीवार से सिर मारते रहेंगे तो मुझे यकीन है कि कि आने वाली पीढ़ी के लिये एक छेद तो बन ही जाएगा निकलने के लिये...........
डा.मान्धाता सिंह जी, नमस्कार, आपने मेरे लेख को अपने पेज में जगह दी इसके लिये मै आपका अभारी हूँ। आशा है आप मुझसे संम्पर्क बनाये रखेगें।
उपरोक्त दो लेखों को आपने एक साथ जोड़ दिया है, बड़ाबाजार में आग के समाप्ती के बाद सन् 2000 में प्रकाशित लेख "मारवाड़ी देस का न परदेस का" भाग आपने जोड़ दिया है। दोनों लेख अलग-अलग हैं। मेरा व्यक्तिगत वेव http://ehindisahitya.blogspot.com/
के आप सदस्य बन सकते हैं। धन्यवाद - आपका: शम्भु चौधरी, कोलकाता
डा. रूपेशजी, बहुत अच्छा लगा आपका सुझाव। मगर आप की कुछ बातों से मैं सहमत नहीं हूं। मसलन बड़ाबाजार पर अपना लिखा लेख जारी न करके सीधे इसे परोसा तो सिर्फ इसलिए कि आप वह भी जानें जो इस किस्म के लोग कहते हैं। दूसरी बात यह कि एक विशेष समदाय के लिए लिखे लेख में लेखक का जो आक्रोश दिखता है उसे शायद संपादित करने की नहीं बल्कि आप जैसे लोगों से इस नजरिए पर बेहतर टिप्पणी की जरूरत थी। ये क्या कहना चाहते हैं वह इनके लेख में बहुत स्पष्ट है। नाराज पत्रकारों से भी इसी लिए हैं क्यों कि कुछ अखबारों की भूमिका भी ऐसी ही थी। कोलकाता शहर में बड़ाबाजार सरकारी उपेक्षा और अव्यवस्था की वह त्रासदी झेल रहा जिसे कुछ शब्दों में शंभू चौधरी ने कहने की कोशिश की है। यह अलग बात है कि भुक्तभोगी के पास कम धैर्य होता है। आपसे वैचारिक मरहम और उनके गलत नजरिए पर सार्थक टिप्पणी की उम्मीद थी। आपने शायद गुस्से में न मुझे बख्सा और न लेखक को। फिर भी तल्ख टिप्पणी जैसी भी हो मुझे अच्छी ही लगती है। उम्मीद है आप सार्थक निंदक की भूमिका छोड़ेंगे नहीं। धन्यवाद।
आदरणीय डॉ रूपेश श्रीवास्तव जी, एवं डॉ मान्धता सिंह जी के विचार पड़ने को मिले। वास्तव में मेरे दो अलग-अलग लेखों को यहाँ एक साथ जोड़ दिया गया है। एक लेख- व्यंग्य: बड़ाबाजार मैं आग,और दूसरा लेख "मारवाड़ी देस का न परदेस का" दोनों अलग-अलग समय में लिखे लेख हैं।
"मारवाड़ी देस का न परदेस का" मेरे कई लेखौ का संग्रह सन् 2000 में ही प्रकाशित किया जा चुका है, उसे ही संक्षिप्त संसोधन के बाद नेट पर जारी किया हूँ। -शम्भु चौधरी, कोलकाता
निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छंवाय....
ये साला मैं कब समीक्षा ,आलोचना और निंदा मे अंतर समझ पाऊंगा ?
मुझे पत्रकारिता के एक पुरोधा ने कहा था कि हो सकता है कि मैं तुम्हारी इसी भी बात से सहमत न रहूं किन्तु यदि कोई तुम्हारा बोलने का अधिकार छीनेगा तो मैं तुम्हारे साथ उससे लड़ूंगा...
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