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20.2.08

इन पलों को शिद्दत से महसूस करता हुं मैं.. .

रुपेश जी के सक्रिय ब्लॉग लेखन से कहीं ज्यादा उनके सेवा भाव ,करुना को बाँटती उनके आँचल के छाँव तले पीड़ित भारत चंगा हो रहा है, ऐसा सुना, काफी खुशी हुई । समय ,समाज,परिस्थिति को यही चाहिए भी। हजारों,लाखों,करोरों मतलब हर घर में रुपेश जी जैसी मनोवृति पनप जाए तो समझो सड़ी सभ्यता का एक हिस्सा ख़ुद-ब-ख़ुद गुनगुनाने लगेगा।
रुपेश भाई ने एक जगह लिखा था की''क्या हुई जो सांझ निगल गयी''शब्द में इतने आदर,सम्मान,आमंत्रण और आशीर्वाद के छंद मिले की उन्हें पंक्तिबद्ध करने से ख़ुद को रोक नही सका और आज की शाम कुछ इस रूप में हाजिर हुं.आपकी बौधिक जुगाली का एक मात्र अंश बनने का आकांक्षी .......मनीष राज


डॉक्टर साहब, सांझ ने नही झूठ के आवरण में लिपटे सच और परिवेश के आदरणीय कठोड़,बर्बर,रूढ़,तथा कथित आडम्बरों की जीवंत प्रतिमाओं ने निगला है हम जैसे अंकुरित हो रहे नवंकुरों की कोमल पत्तीओं को अपने जड़ सिध्हंतो एवं बोझिल परम्पराओं के साथ मिलकर कुचला है हमे। आपके द्वारा निर्मित किए गए समाज,परिवेश और उनमें रहनेवाली उपेक्षित प्रजाति को शिद्दत से महसूस करते हैं हम,उनके दर्द,उनकी बेचैनी,उनका उत्साह,उनकी उद्दंडता ,उनकी हँसी,उनका रुदन,उनकी आशाएं ,उनकी निराशाएं,सबों की इन अनुभुतीओं से रोज साक्षात्कार होती है हमारी।



उनके जीए गए पलों की तासीर इतनी गहरी है की उनको उपेक्षित करने की कल्पना से सिहर उठती है आत्मा हमारी॥ कोर्पोरेट वर्ल्ड और एल्लो कल्चर को नंगा होते देखता हुं यहाँ जब ''मनुष्य'' की इस उपेक्षित प्रजाति की वेवाशी के करीब होता हुं,उनके नंगे बदन और भूख से बिलबिलाते याचना के स्वर में अपनी मज्बुरिओं के स्वर मिलाकर मुठिआं भींच कर रह जाता हुं । जब देखता हुं की ये उपेक्षित माँ परसौती गृह से निकले बच्चे को चावल का मांड पिलाकर पोषण देती है तो सारे कम्प्लान और होर्लिक्स की एड लाइनों की चमक फीकी दिखती है मुझे॥



झाड़ झंकड़ के धुएं को अपने कलेजे में भर कर हांफती माओं,चाचिओं को देख कर आपके देश का सेंसेक्स हांफता नजर आता है मुझे । मुझे पीपल के पेड़ के नीचे बैठे असहाय,वक्त के गुलाम बने ताश की पत्तीओं की उलट फेर में अपना भविष्य तलाशते युवाओं को देख कर ''रोजगार परक सरकार देने का वादा'' करने वाले नीति-नियंताओं के दोहरे चरित्र पर शक और जकड कर अपनी नींव मजबूत करता दिखता है मुझे॥



मुझे रोज आत्महत्या कर रहे किसान की जवान बेतीओं के मर्मस्पर्शी उदगार और उसके परिवार में बचे रह गए अबोधों की आंखों की गहराई में कुछ चुभते प्रश्न कलेजा चीर कर रख देते हैं जब देखता हुं गाँव का कोई दबंग हमारे घर से अपने बकरी के लिए घास धुन्धने गयी जवान बहनों को फानका बहियार में बाजार कर दबंगई ,मर्दानगी का नंगा नाच दिखाता है॥



आठ वर्ष के बच्चे को निम्मक,मिर्चाई के साथ तेरह रोतिआं गिलते देखता हुं तो पिज्जा,बर्गर के स्वाद पानी से फीके दिखते हैं मुझे। हगने,मुटने वाला पेंदी लगा लोटे जिसे अभी गली का कुत्ता मुंह लगा कर गया है में पूरे संतोख के साथ पानी पीनेवाले अपनों को देखता हुं तो एक्वागार्ड और हेमा मालिनी मुंह चिधाती नजर आती है मुझे॥



मैं देखता हुं रोज आपकी आतिश बाजिआं , आँखे फाड़ कर आपको देख रही इस उपेक्षित आबादी में से एक बहन का परिवार बस जाएगा आपकी बीयर की बोतलों के चियर्स से गिरने वाले श्वेत फेनों के पैसों से....


मैं रैली में पधारे नेताओं के चक चक सफ़ेद कुर्तों और आश्वाशन भरी बातों और धुल उडाती ,लैंड करती हवाई जहाज के घिर्निओं को नही,मेरी निगाहें हैली पेड पर चुना छिड़क रहे घुठो काका की मज्बुरिओं पर टिकती है और कह जाती है आपका खोखला सच......



मेरी आंखें हाजत में बंद रामेसरा को देखती हैं जिसकी माँ अभी भी कान में कडुआ तेल देकर गुज्जू निकालने का प्यार बरसा रही है,धोरी में तेल देकर पोश रही अपनी औलादों को जो भूख से लड़ते-लड़ते सहकर के दुकान में सत्तू चुराताआया पकड़ा गया ,अभी हाजत में माँ के सपनों को पुरा करने का अथक प्रयास कर रहे हैं हजारों हमारे जैसे उपेक्षित,वेवश युवा....

मैं रोज देखता हुं ,भुगतता हुं ,पलायन करते वेवाशों की टोली को,जो अपनों की पेट भरने आप सभी ,सुसंस्क्रितों ,धनवानों के चौखट पर मुडी बजारते हैं लेकिन हमे देश्ला कुत्ता समझ कर खदेड़ दिया जाता है और फ़िर हम आ जाते हैं वही जहाँ से चले थे अपनी भूख मिटाने .....अपनी प्यास बुझाने


मैं रोज गुजरता हुं आडम्बरों,अन्ध्विस्स्श्वासों और तुम्हारे पत्थर जैसी इरादों की तंग गलिओं से ,मैं रात के एक बजे तक ''जागो-जागो महादेव '' करती चीखती चिल्लाती आत्माओं की चीख को महसूस करता हुं तो सडकों की अतिक्रमण कर रही मंदिरों के सामने से गुजर रही आत्माओं को सिर झुकाते,,कुछ माँगते...कुछ फरियाद करते....अनवरत


मैंने भुगता है हर कदम पर दंश झेली है पीडा .....रोज भुगतता हुं,रोज झेलता हुं इन दर्द के ह्रदय विदारक क्षण को अभी भी जी कर आया हुं.....इस की बोर्ड पर थिरकती मेरी उंगलियाँ प्रत्यक्ष गवाह हैं मेरी तल्ख़ सच्चाईओं की की इन्ही हाथों से गोबर उठाकर, परा पारी को सानी पानी लगा कर ,इन्ही हाथों से आये हैं आप बुधिजीविओं ,विद्वानों की दुनिया में वक़्त के बेरहम कपाल पर अपनी उत्कट जीजीविषा और अभिलाषाओं की मुहर लगाने...
हम इन उपेक्षितों,अपनों की वेव्शी में शामिल हो जाते हैं ,उनके साथ हंस लेते हैं,उनके साथ गा लेते हैं,उनके साथ रो लेते हैं,लेकिन जब कभी अकेले होते हैं तो छलछला जाते हैं हम अपनी मज़बूरी के आगोश में जकड़े ''उपेक्षित''

हम आपकी गगनचुम्बी इमारतों में बन रही योजनाओं का हिस्सा नही बन्ना चाहते हैं,और न ही चाहते हैं की आप भद्र आस के बीच हास्य का पात्र बनाना या क्रंदन हृदय्वेधि चीख से आपकी सोई आत्माओं के दरवाजे को खुलवाना......
हमे चाहिए भी नही आपका संबल ,क्योंकि हमने अब अपना रास्ता खुद चुन लिया है ....वर्षों के अथक अनवरत परिश्रम और मंथन के बाद सृष्टि-सागर में मेरी तरह उपेक्षित पडी ''गाली'' का साथ मिल गया है हमें॥ हम महात्मा की संतानें हैं,बुधः की भूमि के उपज हैं ..अहिंसा से आपका ध्यान खीचेंगे अपनी तरफ....हमे गोलिओं का शोर पसंद नही..हमने देखा है हजारों मरती आत्माएं,अव्यक्त अभिव्यक्तीओं को इन गोलिओं के शोर में दबते देखा है हमने....
विद्वानों,जरा सुनो स्वतंत्रता का अतिक्रमण उछ्रिन्न्ख्लता है तो अहिंसा की हद गाली ही हो सकती है। आप बुध्हिजिवी ही तय करें ''गोली और गाली'' क्या हो उचित इस व्यवस्था से त्राण पाने के लिए ?

निश्चित ही संधिस्थल साबित होगी हमारी गाली तो बस इसी नजरिये से दीजिये न विमर्श को आधार ...प्रश्न बनाइये न '''गोली और गालीक्या हो विकल्प ? और जिस दिन गाली हमारी सामुहिक आवाज बन जायेगी विधान सभाओं क्या संसद की छाती पर चढ़कर,ताल थोक करअपने हक़ हुकुक को लेंगे हम कमीने,जलील,काहिल,उपेक्षित,हरामी,कुत्ते,भौन्सरी,जूठन,भादासी.....

हाँ ,हम उपेक्षित आबादी भादासी हैं

जे भडास जे यशवंत
मनीष राज बेगुसराय

2 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

मनीष भाई,इस आग को जिन्दा रखिए और ऐसा लिख कर मुर्दा सी जनता तक पहुंचाइए कि क्लीव जन भी खुद को परिवर्तन के हवन में समिधा के रूप में समर्पित करने में जरा भी न हिचकिचाएं । अंगारे उचित जगह पर जलाइए । आप जैसे लोग ही अपनी अथाह ऊर्जा से समाज को सही दिशा पर लाएंगे । अगर संपादक आपका लिखा नहीं छापता है तो खुद ही लोगो को बोल कर बताइए भले लोग पागल कहें ,पुरजोर गाली दीजिए पर वहां जहा कुछ कर न पाएं जहां कर सकते हों उधर कार्य करिये ।
भड़ासी परनाम पहुंचे...
जय भड़ास
जय यशवंत
जय मनीषराज
जय क ख ग घ
जय च छ ज झ
..........
..........
जय क्ष त्र ज्ञ
पर हर हाल में जय जय भड़ास

Unknown said...

lge rhiye guru