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26.2.08

कुछ दिन से भडास पर जी नहीं लगता

अभी पता नहीं भडास पर क्‍या बेकार की बहस चल रही है। लगातार...
हो सकता है कुछ लोगों को इससे मजा आता हो लेकिन खुलकर दिल की बात कहने और दिमाग की कुंठाओं को इस तरह घोटने में कि वे दिमाग में ही महिषासुर की तरह फैलने लगे एक अन्‍तर है। हमारे यहां इसे गू निचोना कहते हैं। यानि दो आदमी आमने सामने बैठ जाते हें और गंदी से गंदी घटिया से घटिया बाते करते हैं इससे दिमाग की कुंठा को आंशिक राहत मिलती है। कुछ लोगों में गू निचाने की आदत सनक की हद तक होती है। पिछले कुछ दिन से भडास पर क्रिएटिव विचारों की बजाय उलूल जुलूल बातें आ रही हैं। मैं यह नहीं कहता कि दूसरे लोगों को अपनी बात कहने का हक नहीं है लेकिन यार कुछ तो रहम करो। हमारे साथी बने हो हम तुम्‍हारे साथी बने हैं कुछ तो ऐसा हो जिसे देने और लेने में मजा आए।
बुद्धिजीवियों का मुगालता लिए दो सौ से अधिक लोग इस ऊट पटांग बहसों में घुसे कैसे यही सोचने का विषय है। यह भी हो सकता है कि कुछ लोगों ने जबरदस्‍ती यहां प्रवेश लिया हो इस कम्‍युनिटी ब्‍लॉग को नष्‍ट होने की कगार तक पहुंचाने के लिए। कुछ भी हो सकता है लेकिन जो हो रहा है वह ऐसा नहीं है जैसा पहले चल रहा था। चुगली हो लेकिन मीठी, गाली हो तो चुभने वाली न कि छुरे की तरह भोंक देने वाली। कुछ मिर्च हो कुछ मसाला हो यहां कुछ ऐसी बहस की जरूरत है जो हमें सोचने का नाश्‍ता दे न कि दिमाग खा जाए। बहस करने के लिए बहुत मुद्दे हैं यह लिंग असमानता और अनुपस्थिति ही क्‍यों ?

4 comments:

Anonymous said...
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Anonymous said...

सत्य वचनम् मित्र, परन्तु संभव है कि बहूत सारे मित्रों के लिए ये ही भड़ास हो.

अबरार अहमद said...

sahi kaha joshi ji. main bhi sahmat hun.

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

जोशी जी,"कुछ तो जरूर बात है कि हस्ती नहीं मिटती सदियों से रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा"
अगर किसी गरियार सांड की पीठ पर चार कौवे बैठ जायें तो ऐसा नहीं मान लेना चाहिए कि अब कौवे उसे कोस रहे हैं और पीठ तक आ पहुंचे तो सांड मरने वाला है । प्रभु,भड़ास तो राहु की तरह है जो मुद्दों की बकैती करने वाली बौद्धिकता को ग्रहण लगाए रहता है ।