मनोज कुमार राठौर
भारत की आजादी के इतिहास में जिन शूरवीरों ने अंग्रेजों को लोहे के चने चबाने के लिए मजबूर किया था, जिन्होंने भारत को गुलामी की बेडियों से छुडवाया और स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया। जिन शूरवीरों पर भारत जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक हैं-भगतसिंह। इस महान देशभक्त का जन्म 27 सितम्बर 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गांव (पाकिस्तान) में हुआ। यह एक विचित्र संयोग ही था कि जिस दिन इनका का जन्म हुआ उसी दिन उनके पापा और चाचा को जेल से रिहा किया गया था। इस शुभ अवसर पर उनके घर में खुशी की लहर दौड़ उठी और भगत सिंह की दादी ने बच्चे का नाम भागा रखा। भागा अच्छे भाग वाले को कहते हैं इसीलिए इनका का नाम भारत में भगतसिंह के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भारत को स्वतंत्रता दिलावाने में भगतसिंह की भूमिका महत्वपूर्ण थी। इस यौद्धा के बिना आजादी अधुरी थी। आजादी की इस हवा को भगतसिंह ने नई दिशा प्रदान की थी।
भगतसिंह के मन में बचपन से ही देशभक्ति की भावना थी। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के पश्चात उन्होंने सन् 1916-1917 में लाहौर के डीएवी स्कूल में प्रवेश लिया। वहां उनका संपर्क लाला लालजपतराय और अम्बा प्रसाद जैसे कर्मठ देशभक्तों से हुआ जिनसे उन्होंने काफी प्रेरणा भी मिली। सन् 1919 में रोलेट एक्ट के विरोध में संपूर्ण भारत वर्ष में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग काण्ड हुआ। इस घटना के समाचार सुनकर भक्तसिंह लाहौर से अमृतसर चले गए और वहां का मंजर देखकर उनका खून खोल उठा। रक्त से भीगी मिट्टी उस मंजर को खुद बयान कर रही थी। भक्तसिंह ने उसी जगह खड़े होकर प्रतिज्ञा ली कि इस अंग्रेज शासन को में जड़ से उखाड़ फेकुगां। भक्तसिंह की इस प्रतिज्ञा के बाद से एक ही लक्ष्य बन गया था भारत को आजाद कराना। बस यह चिंगारी उनके दिल में जलती गई। सन् 1920 के महात्मा गांधी के असहयोग से प्रभावित होकर 1921 में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया। दिल में देशभक्ति का जज्बा लिए सन् 1924 में कानपुर के दैनिक पत्र प्रताप के संचालक गणेश शकर विद्यार्थी से भेंट की। इसी भेट के कारण वह बटुकेशवर दत्त और चंद्रशेखर आजाद के संपर्क में आए। इससे उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुचने का रास्ता मिल गया और वह हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बन गए। अब भगतसिंह पूर्ण रूप से कं्रातिकारी कार्याे तथा देश सेवाओं के लिए समर्पित हो गए थे। सन् 1926 में अपने तत्वाधान में नौजवान भारत सभा का गठन किया जिसमें सभी धर्मों के लोगों को उन्होंने सौगंध दिलाई की छुआ-छुूत और जातिवाद से बढ़कर देश हितों को मानेगें। ब्रिटिश सरकार ने इस सभा की खबर सूनी तो उन्होंने दांतो तले ऊगंलियां दबा ली।
30 अक्टूबर, 1928 का वह दृष्य बड़ा खौफनाक था जब साइन कमीशन लाहौर पहंुचा और इसी के विरोध में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में शातिपूर्ण तरीके से एक जुलूस निकाला गया। इस जुलूस को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार के सहायक अधीक्षक साण्डर्स ने प्रदर्शनकारीयों पर लाठी चार्ज की। लाला लाजपत राय पर भी अनगिनत लाठियां बरसाई गई जिससे वह लहूलुहान हो गए। यह सब दृष्य भगतसिंह अपनी आंखों से देख रहे थे। उनकी आंखों के सामने ही लाला लाजपत राय परमात्मा में विलिन हो गए। यह सब कुछ देखकर उनका उनके दिल में बदले की भावना पैदा हुई और इस बदले को पूरा करने के लिए साण्डर्स को मारने का षड़यंत्र रचा गया। साण्डर्स को मौत के घाट उतार दिया गया। साण्डर्स की मौत के बाद गौरो की सरकार बौखला गई। ब्रिटिश सरकार ने शीघ्र ही भगतसिंह और उनके साथियों को पकड़ने के आदेश जारी किये। इस घटना के बाद भगतसिंह को लोकप्रियता प्राप्त हुई और लोगों की जुबान पर भक्तसिंह का नाम गूंजने लगा। गौरे से बचने के लिए उन्होंने अपने बाल कटवाकर, पेंट शर्ट पहनकर और सिर पर हैट लगाकर वेश बदला और सभी की आंखों में धूल झोंकर कलकत्ता पहंुचे। कलकत्ता में कुछ समय बिताने के उपरान्त आगरा गए। इसी दौरान हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी की एक सभा हुई, जिसमें पब्लिक सेपफ्टी बिल तथा डिस्प्यूट्स बिल पर चर्चा हुई। इनका विरोध करने के लिए भक्तसिंह ने केन्द्रीय असेम्बली में बम फंेकने का प्रस्ताव रखा। साथ ही उन्होंने कहा कि इस से बम से किसी भी व्यक्ति को हानी न हो। इसके बाद हम स्वयं की गिरफ्तारी देगें। भगतसिंह के इस प्रस्ताव से चंद्रशेखर आजाद असंतुष्ट थे पर भगतसिंह की जिद के आगे उनकी एक न चली और विवश होकर उन्हें प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा। 8 अप्रैल,1929 को भक्तसिंह और बटुकेषवर निष्चित समय पर असेम्बली पहंुचे। जैसे असेम्बली में बिल के पक्ष में निर्णय देने के लिए अध्यक्ष उठा, भगतसिंह ने एक बम फेंका, फिर दूसरा। दोनों ने इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए अपनी गिरफ्तारी दी। इस घटना के बाद सुखदेव, जयगोपाल तथा किशोरीलाल को भी गिरफ्तार कर लिया गया। भगतसिंह अच्छी तरह से जानते थे कि अंग्रेज सरकार उनके साथ कैसा व्यवहार करेगी। उन्होंने अपने लिए वकील तक नहीं किया क्योंकि उनकों अपनी आवाज जनता तक खुद पहंुचानी थी। 7 मई 1929 को भगतसिंह व बटुकेशवर के विरूद्ध न्याय का अंधा नाटक शुरू हुआ। भगत को पता था कि न्याय उनके पक्ष में नहीं होगा। अदालती कार्यवाही चलती गई और इसके पश्चात 7 अक्टुबर 1930 को 68 पृष्ठीय निर्णय दिया, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फंासी की सजा सुनाई गई। इस निर्णय के विरूद्ध नवम्बर 1930 में प्रिवी परिषद में अपील दी गई, परन्तु वह भी खारिज हो गई। देष और विदेश में भगतसिंह की सजा को न्याय के विरूद्ध ठहराया। पर अंग्रेजों के आगे किसी की एक न चली। भगतसिंह द्वारा लगाई की चिंगारी अब आग बन गई थी और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ पूरा देश एक साथ खड़ा हो गया। जेल में रहते हुए उन्होंने आजादी की लड़ाई बड़ी चतुराई से लड़ी। ब्रिटिश शासन की कूट नीतियों का उजागर किया गया।
जेल में रहते हुए भगत सिंह ने दि डोर टू डेथ (मौत का दरवाजा), आइडियल आॅफ सोशोलिज्म (समाजवाद का आदर्ष ), स्वाधीनता की लडाई में पंजाब का पहला उभार आदि पुस्तकें लिखी। इस देशभक्त में इतना जुनून था कि वह कैदियों में जोश भरने के लिए शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियां गाने लगते -मेरा रंग दे बसंती चोला। इसी रंग में रंग के शिवा ने मां का बंधन खोला।। मेरा रंग दे बसंती चोला। यही रंग हल्दीघाटी में खुलकर था खेला।। नव बसंत में भारत के हित वरों का यह मेला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला।।
ब्रिटिश सरकार को भगतसिंह का खौप सताने लगा था और वह उनकी चाल समझ गए। गौरों ने फंासी का समय प्रातकाल 24 मार्च, 1931 निर्धारित किया था। पर ब्रिटिश सरकार इस निर्णय में लेट हो गई थी क्योकि भगत ने सम्पुर्ण भारतवासियों में आजादी का जज्बा कायम कर दिया था। जो उनका प्रमुख लक्ष्य था। जिंदगी तो देश के नाम कर चुके थे, तो मौत से क्या डरेगें। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को निष्चित तारिक से एक दिन पहले सायंकाल 7.33 बजें ही फंासी पर चढा दिया गया। लाशों को परिवार के हवाले करने की हिम्मत तो गौरों में नहीं थी। उनकी लाशों के टुकडे़ कर रातों रात चुपचाप फिरोजपुर के पास सतलुज नदी के किनारे जलाने के लिए ले जाया गया। पर जनता हाथ में मशाल लिए वहां जा पहुंचे और अंग्रेज सैनिक लाशों को छोड़ कर भाग गए। देशवासियों ने उनका विधिवत दाह संस्कार किया। भगत सिंह की मुत्यु के बाद भी वह अमर रहे। उनका नाम ही अब देशकी आजादी के लिए काफी था।
भगतसिंह से प्रभावित होकर डाॅ. पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा था कि यह कहना अतिष्योक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था, जितना गांधी का। भारत को आजाद कराने में भगतसिंह का बलिदान व्यर्थ नहीं गया और भारत जल्द ही आजाद हो गया। भारत के लिए भगतसिंह तुम अमर हो और अमर रहोगे।
15.10.08
आजादी थी तुम बिन अधुरी
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2 comments:
जो लड़ाई भगत सिंह ने जारी रखी थी वह बस देश की संवैधानिक आजादी का नाटक करके बंद कर दी गयी जबकि स्थितियां काफ़ी हद तक वैसी ही हैं जैसी कि उस समय थीं इसीलिये हमारे प्यारे जज साहब(जस्टिस आनंद सिंह)ने उस लड़ाई को तीसरे स्वाधीनता आंदोलन के रूप ने पंद्रह साल पहले ही छेड़ दिया था जिसमें वे और उनके भाई नरेन्द्र,महीपाल,हेमन्त और पिताजी दरब सिंह राजद्रोह के आरोप में पांच साल जेल में रहे उन लोगों की जमानत तक नहीं होने दी काले अंग्रेजों ने लेकिन कितने लोग इस बात को जानते हैं क्योंकि पारंपरिक मीडिया में इस बात के कवरेज के लिये दम नहीं है और ये बातें सिर्फ़ और सिर्फ़ भड़ास पर ही हो सकती हैं बाकी जगह तो गधे मुद्दों की पंजीरी खा रहे हैं।
भड़ास ज़िन्दाबाद
चचा,
आपके ये तेवर तो हमने देखे ही नही थी,
वैसे आपकी बात ने सच में जज्बा और गुस्सा दोनों पैदा कर दिया है, इन्साफ के लिए अटल और आडवाणी से कत्ल हुआ देश का जज, राजद्रोह का आरोप और तत्कालीन प्रधान मंत्री और गृह मंत्री का ना कोई बयान ना बचाव, कारण निसंदेह मीडिया का दोगलापन, और सच में काले अंग्रेज से त्रान के लिए देश को चाहिए आवाहन क्यौंकी देश के दल्ले अभी भी राम राम या फ़िर अल्लाह अल्लाह, जीसस जीसस के नाम को बेचकर अपना चकला चलाने में लगे हुए हैं,
"मजहब नही सीखता आपस में बैर रखना" के बजाय हर जगह सबकुछ को मजहबी जामा देकर हमारे देश को बांटने की इन काले अंग्रेजों की साजिश खतरनाक है, मगर हमारे देश में भगत सिंह की आज भी कमी नही.
जय जय भड़ास
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