क्या बोलूं....क्या लिखूं मैं....कि मोशे का दर्द दूर हो सके.....वो पता नहीं कैसे..कब तलक दूर होगा....??जिंदा इंसानों को बेबात मौत की नींद सुला देने वाले लोग कैसे होते हैं....उनकी चमड़ी...उनका मांस...उनकी हड्डी....उनके उत्तक....उनका पेट...उनकी नसें....उनके पैर...उनके हाथ....उनका माथा....उनके दांत....उनकी जीभ... उनकी मज्जा...उनका लीवर...उनकी किडनी....उनकी आंत.....उनके तलवे.....उनकी हथेली.....उनकी ऊँगली.....उनके नाखून...............उनका.........खून.........उनका...... दिल........उनका दिमाग.........उनकी रूह.........मैं समझना-जानना-देखना-पढ़ना चाहता हूँ....कि बेवजह गोली-बन्दूक-बम-बारूद-ग्रेनेड..........यानि कि हर पल आदमी की मौत को अंजाम देते लोग...खुदा का काम ख़ुद करते लोग कैसे होते हैं....मेरे भीतर इक मर्मान्तक-आत्मा-भेदी छटपटाहट जन्म ले चुकी है....कि जो भी इसान किसी भी प्रकार के गैर-इंसानी काम को दिन-रात ही करते चलते हैं...वो भला कैसे होते हैं...मैं उन्हें झिंझोड़कर पूछना चाहता हूँ कि ये सब उन्होंने क्यूँ किया....ये सब वो क्यूँ करते हैं....खून-का-खून बहा कर उन्हें कैसा आनंद मिलता है....किस सुख को प्राप्त करते हैं ये वहशी...मासूमों को मरता हुआ देखकर....!!??....मैं पूछना चाहता हूँ उनसे कि अपनी जिन माँ-बहनों-भाईओं और एनी रिश्तेदारों को वो अपने घर हंसता हुआ छोड़कर आए हैं.......उनमें से किसी भी एक को,जिन्हें वो सबसा कम प्यार भी करते होंवों.....,को लाकर अभी-की-अभी कुत्ते-बिल्ली या किसी भी तरह की हैवानियत भरी मौत उन्हें मारूं....उन्हें उनकी आंखों के सामने तड़पता हुआ छोड़ दूँ....उन्हें आँखें खोल कर ये सब देखने को मजबूर भी कर दूँ....तो अभी-की-अभी वे बताएं कि उन्हें कैसा लगेगा....!!??......यदि सचमुच ही अच्छा....तो अभी-की-अभी मैं उन्हें कहूँ...कि आओ सारी धरती के लोगों को ख़त्म कर डालो.....या फ़िर एक दिन वो ऐसा ही कर डालें...कि अपनी ही माँ-बहनों का कत्ल कर डाले...और उन्हें तड़पता हुआ....मरता हुआ देखते रहें.....??!!ये कैसी नफरत है.....??ये नफरत किसके प्रति है.....??इस नफरत का कारण क्या है....??और इस नफरत का क्या यही अन्तिम मुकाम है......??क्या हत्या के अलावा....या विध्वंस के अलावा कोई और रास्ता नहीं है....और क्या ये विध्वंस या हत्या का मार्ग...उनकी मंजिल-प्राप्ति में किसी भी प्रकार से सहायक हो भी रहा है.....??कितने वर्षों से ये लोमहर्षक कृत्य किया जाता चला आ रहा है.....क्या इससे सचमुच कोई सार्थक मुकाम हासिल हो पाया है....??या महज ये अपनी ताकत का प्रदर्शन-भर है.....!!यदि यह ताकत का प्रदर्शन भी है तो किसलिए....किसके लिए.....??आख़िर इस प्रदर्शन का कोई उपयोग भी है कि नहीं....या कि मज़ाक-ही-मज़ाक में ह्त्या का खेल चल रहा है.....!!??ये मज़ाक क्या है....??ये ताकत कैसी है....क्या ताकत का रूप सदा वहशी ही होता है....??क्या ताकत आदमी को आदमी और उसकी जान को जान नहीं समझती....??और यदि ऐसा है भी है तो इस तमाम प्रकार के लोगों को सबसे पहले अपनी ही जान क्यूँ नहीं ले लेनी चाहिए.....??अगर जेहाद का मतलब जेहाद है तो अपनी जान लेना तो उसका परम-परिष्कृत रूप होगा.....!!जेहाद का महानतम जेहाद...क्यूँ ठीक है ना....!!......इसलिए तमाम प्रकार के जान लेने वालों को मेरी सलाह है कि बजाय किसी अन्य की जान लेने के सीधे ख़ुद की जान लेकर उपरवाले के पास परम पद प्राप्त कर लेवें....उससे आने वाली मानवता भी उनकी अहसानमंद रहेगी.....वो भी सदा के लिए......!!!!
10.12.08
क्या हत्या एक खेल है....!! न बाबा ना !!!
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6 comments:
भूत भइया बेहतरीन लिखा है लोगों को संदेह होने लगा है कि हम दोनो भूत एक साथ बैठ कर लिखते हैं और एक ही इमली के पेड़ पर बैठ कर दुनिया देखते हैं।
भूतनाथ जी वाकई में शानदार लिखा है
भूतनाथ जी वाकई में शानदार लिखा है
भूतनाथ जी
आपका कहना उचित है, पर वो दरिन्दे क्या जाने सभ्य भाषा, गोली की भाषा बोलने वाले को अब गोली की ही जबान मैं समझाया जा सकता है
भूतनाथ जी
आपका कहना उचित है, पर वो दरिन्दे क्या जाने सभ्य भाषा, गोली की भाषा बोलने वाले को अब गोली की ही जबान मैं समझाया जा सकता है
भूतनाथ जी बहुत अच्छा लगा आपका लेख !
दिल को छूती हैं आपकी भावनाएं !
साफ पता चलती है
आपके अन्तरमन की वेदना !
पूरा देश इस पीड़ा से गुजर रहा है !
इतने आघात सहने के बावजूद भी देश के लोग आहत अवश्य हैं किंतु टूटे नहीं हैं .....
डरे नही हैं...
क्रूरता जारी है तो सह्रदयता भी पीछे नहीं है .... मानवीय संबंधों की डोर और मजबूत हुयी है !
आपके लेख को पढ़कर एक बार पुनः चिंतन
को बाध्य होना पड़ा !
कहीं मैंने पढ़ा था कि
धार्मिक इंसान के पास प्रायश्चित का
भरपूर मौका होता है जब कि नास्तिक के पास प्रायश्चित का कोई मौका नहीं होता !
उसके पास सिर्फ उसकी अंतरात्मा होती है ,,,, उसका विवेक होता है !
जब हमको पता ही है कि एक बार गंगा में
नहाने से पाप धुल जायेंगे तो फिर क्या फर्क पड़ता है 4-6 ग़लत काम करने से ?
पूजा पाठ...कथा,,,हवन..भंडारा,,,तीर्थ गमन.... इत्यादि किसी किसी न किसी रूप में पाप बोध कम करने का मार्ग भी हैं !
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर बचपन से ही हमें सिर्फ अपने ही धर्म में आस्था रखना सिखाया जायेगा और अन्य धर्मों की आलोचना / तिरस्कार करना तो फिर आश्चर्य कैसा ? ऐसा समाज तो बनना ही था ! अपने धर्म का महिमा मंडन ..... दूसरे का तिरस्कार ! अपना धर्म ग्रन्थ श्रेष्ठ ...... दूसरे का निकृष्ट !
आतंकवाद का सारा पाशविक खेल इसी बात पर चल रहा है ! बकौल काल मार्क्स - " आगे बढो खोने को तुम्हारे पास कुछ नहीं ....पाने को सारा जहान है!"
जो चीज आपकी नजर में बुरी है वो दूसरे के लिए नहीं बल्कि सबाब का काम है ! आख़िर इन 9 आतंकवादियों को 186 काफ़िरों को मौत के घाट उतारने के बाद तो अल्लाह ने इन्हें इतना सबाब दिया ही होगा कि इनकी आने वाली पीढ़ियों को भी जन्नत का पासपोर्ट मिल जाएगा।
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