ज़मीं पे चल न सका आसमान से भी गया
कटा के पर को परिंदा उड़ान से भी गया।
तबाह कर गई पक्के मकान की हसरत
मैं अपने गाँव के कच्चे मकान से भी गया।
पराई आग में ख़ुद जलके क्या मिला तुझको
उसे बचा न सका अपनी जान से भी गया।
भुलाना चाहे तो भुलाने की इंतिहा कर दिल
वो शख्स अब मेरे वहमो-गुमान से भी गया।
किसी के हाथ का निकला हुआ वो तीर हूँ मैं
हदफ़ को छू न सका और कमान से भी गया।
शाहिद क़बीर
प्रस्तुति-मकबूल
30.4.09
ग़ज़ल
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2 comments:
'भुलाना चाहे तो भुलाने की ...... इस मिसरे में 'तो' बढ़ रहा है और बहर टूट रही है. बाकी सारा कुछ बहुत अच्छा है.
Bahut hi achha likha hai mere dost ne, bahut khub, tarifekabil.
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