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8.7.10

अच्छा करने के लिए तो मुहूर्त की जरूरत नहीं

हमारे एक साथी तेज बारिश में मिठाई की दुकान से कुछ ज्यादा ही मिठाई ले रहे थे। मैंने पूछा क्या भारत बंद के कारण तैयारी कर रहे हो, पहले तो वे टाल गए, दो-तीन बार पूछने पर राज खोला कि श्रीमती का जन्मदिन है और हमने ऐसे किसी भी शुभ या स्मृति प्रसंग पर तय कर रखा है कि अपनी खुशियां उन बच्चों के साथ भी बांटें जो बेसहारा, अनाथ हैं। बंद के कारण दुकानें नहीं खुलेंगी इसलिए एक दिन पहले ही खरीद कर रख रहा हूं।
एक अन्य मित्र भी जरूरतमंद की मदद करते हैं लेकिन, तरीका थोड़ा अलग है। पास-पड़ोस मेें किसी निर्धन परिवार का बच्चा आॢथक परेशानी के कारण आगे पढ़ाई नहीं कर पा रहा हो तो उसे कापी, किताब, फीस, स्कूली ड्रेस आदि मुहैया करा देते हैं। एक अन्य व्यक्ति अपने परिवार के बड़े छोटे सदस्यों के साफ-सुथरे और पहनने लायक कपड़े प्रेस करवा के जरूरतमंद लोगों या आश्रम में देकर आते हैं।
चाट की दुकान पर हम कुछ चटपटा खाने के लिए तो जाते हैं लेकिन टेस्ट पसंद नहीं आने पर हम बिना एक पल सोचे वह प्लेट डस्टबीन में डाल देते हैं। हमारे बच्चे पेस्ट्री की जिद्द करते हैं, हम लेकर भी देते हैं लेकिन बालहठ के चलते वह उसे फेंक कर कुछ और खाने के लिए मचलने लगते हैं। हम फिर उनकी नई फरमाइश पूरी करने में लग जाते हैं।
हमारे आसपास ही कहीं अनाथ आश्रम भी होते ही हैं। किसी दिन हम वहां जाएं तो सही, बहुत संभव है कि आश्रम संचालक से यह जानकर हम हैरत में पड़ जाएं कि उस आश्रम के बच्चों ने महीनों से समोसा नहीं खाया, चाकलेट नहीं खाई। कई ऐसे बच्चे भी मिल जाएंगे जिन्हें यह तक पता नहीं कि पेस्ट्री क्या होती है और उसके प्लेवर क्या होते हैं।
हम चाहें जिस धर्म क ा पालन करते हों, सभी धर्मों के पवित्र ग्रंथों में बात कहने के तरीके अलग हो सकते हैं लेकिन इन सभी का मूलभाव यह तो रहता ही है कि जो असहाय, असमर्थ हैं उनकी मदद करें। हम सब के मन में कभी-कभी सहायता का समुद्र हिलोरे भी मारने लगता हैं लेकिन समझ नहीं आता किसकी, कैसे, कितनी मदद करें। जब कि ऐसे लोगों कि कमी नहीं है जिन्हें समय पर मिली थोड़ी सी मदद भी डूबते को तिनके का सहारा साबित हो सकती है।
हम अपने पर, अपनों पर खर्च करने में तो दिखावे की सारी सीमाएं लांघ जाते हैं फिर भी कई बार वह सुकून नहीं मिलता जिसके लिए हम यह सारा प्रदर्शन करते हैं। रोते बच्चे को चुप कराने के लिए हम तमाम जतन करते हैं, तत्काल महंगा खिलौना खरीद कर उसे बहलाने की क ोशिश भी करतेे हैं लेकिन उसकी रुलाई रुकती भी है तो कौवे-कबूतर को उड़ते, बंदर को उछलकूद करते, हमारी हंसती शक्ल देखकर या मां की गोद में प्यार की थपकी से। हमारा मन भी लगता है किसी ठुनकते बच्चे की तरह ही है कब, कैसे खुश होगा हमें ही पता नहीं होता। फिर भी हमें यह तो पता ही है कि किसी की आंख से बहते आंसू पोंछने के लिए हम रुमाल दे सकते हैं। हमें यह भी पता है कि किसी अन्य के चेहरे पर यदि हल्की सी मुस्कान देखना है तो हमें भी जोर से तो हंसना ही पड़ेगा। समस्या तो यह है कि हम हंसना मुस्कुराना भूलते जा रहे हैं। श्री श्री रविशंकर जीवन जीने की कला के रहस्यों को समझाते हुए कहते हैं भले ही झूठमूठ हंसो, न हंस सको तो झूठे ही मुस्कुराओ, बदले में हमें सामने वाले की सच्ची या झूठी ही सही लेकिन मुस्कान ही मिलेगी। सही है नाराज कर हम दूसरों का दिल तोडऩे के साथ ही अपना खून भी जलाते हैं लेकिन हमारी हंसी दिलों को जोडऩे और हार्टअटैक से बचाव का काम भी कर सकती है। हम अपने गम से ही इतने दुखी हैं कि सामने वाले कि न तो खुशी पचा पाते हैं और न ही उसका दु:ख हमें विचलित करता है। 'अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल जमाने के लिएÓ यह गीत सुनते वक्त हम गुनगुनाते जरूर हैं लेकिन इसका मर्म नहीं समझ पाते। कई बार भारी भरकम गिफ्ट पर हल्की सी मुस्कान भारी पड़ जाती हैं लेकिन हम बाकी लोगों के चेहरे की मुस्कान बढ़ाने वाले छोटे से प्रयास करने के विषय में भी नहीं सोच पाते। दूसरों के लिए हम करना तो बहुत कुछ चाहते हैं लेकिन प्रचार से दूर रहकर असहाय लोगों की सहायता करने वालों की हमारे ही आसपास भी कमी नहीं है, हम चाहें तो ऐसे लोगों से भी कुछ अच्छा करना तो सीख ही सकते हैं।

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