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3.2.08

मुझे लगता है गंगा शर्म से खुद डूब जाएगी...अवनींद्र कमल-पार्ट वन

बनारस उन दिनों धर्म की वजह से कम, सांप्रदायिक तनाव और मारामारी के लिए ज्यादा जाना जाता था जब अवनींद्र कमल बनारस में अध्ययन के लिए गए हुए थे। एक बेहद सामान्य परिवार का नौजवान हिंदी साहित्य के लिए कुछ करने की मंशा लेकर पढ़ाई-लिखाई करता रहा, साथ ही बनारस की संवेदना को भी पकड़ने की कोशिश में लगा रहा। उसे जो समझ में आया, उसे लिपिबद्ध किया। तब दुबला-पतला अवनींद्र कमल मंचीय कविताई में उभरता हुआ सितारा था और उसने इसी कर्म में अपना जीवन लगाने की ठानी थी। पर होता वो कब है जो सोचा होता है, होता वो है जो कभी न सोचा।

मंचीय कविता में कुछ ही दिनों की मेहनत के बाद नाम कमाने से चमका यह सितारा रोजी-रोटी और घर-गृहस्थी चलाने के लिए इस कदर गंभीर संकट में पड़ा कि उसे दो हजार रुपये की नौकरी पर पत्रकारिता में ट्रेनी का करियर शुरू किया। अमर उजाला के बाद अब दैनिक जागरण में उप संपादक हैं, पश्चिमी यूपी के एक जिले बुलंदशहर के ब्यूरो चीफ हैं। जब उन्हें अपने गांव, माटी, मंचीय कविताई आदि की याद आती है तो रुवांसा होकर कमल बोलते हैं--ज़िंदगी साली लौंड़े लग गई, घर-गृहस्थी चलाने में।

अपने पुराने दिनों की सीडी देखकर कमल खुद को तसल्ली देते हैं, एक दुबला पतला नौजवान बड़े बड़े दिग्गज मंचीय कवियों के बीच माइक संभाल कर लगातार गाये-बोले जा रहा है और पब्लिक ताली पीट रही है। उन दिनों का दुबला-पतला नौजवान अब भरे गाल और शरीर वाला हो चुका है, कुछ ठीकठाक घर-गृहस्थी और नौकरी चलने की वजह से और कुछ दारूबाजी के कारण।

यहां अवनींद्र द्वारा लिखित कुछ कविताएं डालना चाहूंगा जिन्हें मैं शुरू से बेहद पसंद करता रहा हूं। फोन पर अवनींद्र ने ये लाइनें नोट कराईं, हालांकि सच ये भी है कि इधर पिछले पांच छह सालों में अवनींद्र ने कुछ नहीं लिखा है। आप कह सकते हैं कि एक प्रतिभा ने दुनियादारी के चक्करर में असमय दम तोड़ दिया। हममें से ज्यादातर का यही हाल है, करना कुछ चाहते थे, कर कुछ रहे हैं....चलिए, कमल बाबू को पढ़ते हैं...

जय भड़ास, यशवंत

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उन दिनों का बनारस

अजी देखो बनारस शहर की ये तंग गलियां हैं
यहां गंगा के पानी में कई प्यासी मछलियां हैं

न अब सुबहे बनारस है, न अब वह मौज मस्ती है
जहां पर देखिये अब देखिये फिरकापरस्ती है

कि हत्या और बलवा इस नगर की शान है भाई
यहां पूजा गृहों में बिक रहा इमान है भाई

यहां पंडों की किलकारी से मंदिर गूंज जाते हैं
सुना है इस शहर में देवता भी घूस खाते हैं

दबी इतिहास के खंडहर में कबिरा की कहानी है
वो खाली पेट जो सोई हुई है नौकरानी है

यहां तुलसी की चौपाई की हत्या रोज होती है
स्वयं सीताओं को ही रावणों की ही खोज होती है

गूंगे पेट की शहनाई चारों ओर बजती है
पुजारी की तपस्या से अब लैला उपजती है

खड़ी इतरा रही जो ये गगनचुंबी हवेली है
इसी के सामने फैली कई खाली हथेली है

कि तन की नग्नता से सभ्यता भी उब जाएगी
मुझे लगता है गंगा शर्म से खुद डूब जाएगी

1 comment:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

दादा,एक बंदा मिला है जिसने छाती ठोंक कर कहा कि मेरा देश अगर महान नहीं है तो इसमें मेरा दोष है कि मैंने बस कमियों का रोना रोया अब तक ;सभी रचनाधर्मी भाई-बहनों को चाहिए कि लिखें लिखें लिखें और इतना लिखें कि लोगों के पास पढ़ कर अमल में लाने के अलावा कोई मार्ग ही न रह जाए । उस दिन मैं शान्ति से मर सकूंगा वरना अगर मर भी गया तो संसद में नेताओं की ऐसी तैसी करता रहूंगा भूत बन कर.....
और अगर संभव नहीं हो पाया भूत बनना तो ये नेता नर्क में तो मिलेंगे ही और अपन सब भड़ासी भी नर्क में ग्राउंड फ़्लोर पर रहेंगे तब इन सालों को मिल कर सताया करेंगे........